एक सुबह, अभी सूरज भी निकलन हीं था। और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुककर उसने देखा। पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पडा था। उसने अपना जाल किनारे पर रख दिया,वह सुबह के सूरज के उगने की प्रतीक्षा करने लगा। सूरज ऊग आया,वह अपना जाल फेंके और मछलियाँ पकड़े। वह जो झोला उसे पडा हुआ मिला था, जिसमें पत्थर थे। वह एक-एक पत्थर निकालकर शांत नदी में फेंकने लगा। सुबह के सन्नाटे में उन पत्थरों के गिरने की छपाक की आवाज उसे बड़ी मधुर लग रही थी। उस पत्थर से बनी लहरे उसे मुग्ध कर रही थी। वह एक-एक कर के पत्थर फेंकता रहा।
धीरे-धीरे सुबह का सूरज निकला, रोशनी हुई। तब तक उसने झोले के सारे पत्थर फेंक दिये थे। सिर्फ एक पत्थर उसके हाथ में रह गया था। सूरज की रोशनी मे देखते ही जैसे उसके ह्रदय की धड़कन बंद हो गई। सांस रूक गई। उसने जिन्हें पत्थर समझा कर फेंक दिया था। वे हीरे-जवाहरात थे। लेकिन अब तो अंतिम हाथ में बचा था, और वह पूरे झोले को फेंक चूका था। और वह रोने लगा, चिल्लाने लगा। इतनी संपदा उसे मिल गयी थी कि अनंत जन्मों के लिए काफी थी, लेकिन अंधेरे में, अंजान अपरिचित, उसने उस सारी संपदा को पत्थर समझकर फेंक दिया था।
लेकिन फिर भी वह मछुआ सौभाग्यशाली था, क्योंकि अंतिम पत्थर फेंकने से पहले सूरज निकल आया था और उसे दिखाई पड़ गया था कि उसके हाथ में हीरा है। साधारणतया सभी लोग इतने भाग्यशाली नहीं होते। जिंदगी बीत जाती है, सूरज नहीं निकलता, सुबह नहीं होती, सूरज की रोशनी नहीं आती। और सारे जीवन के हीरे हम पत्थर समझकर फेंक चुके होते है।
जीवन एक बड़ी संपदा है, लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है।
जीवन क्या है, यह भी पता नहीं चल पाता और हम उसे फेंक देते है। जीवन में क्या छिपा है, कौन से राज, कौन से रहस्य, कौन सा स्वर्ग, कौन सा आनंद, कौन सी मुक्ति, उन सब का कोई भी अनुभव नहीं हो पाता और जीवन हमारे हाथ से रिक्त हो जाता है।
इन आने वाले तीन दिनों में जीवन की संपदा पर ये थोड़ी सी बातें मुझे कहानी है। लेकिन जो लोग जीवन की संपदा को पत्थर मान कर बैठे है। वे कभी आँख खोलकर देख पायेंगे कि जिन्हें उन्होंने पत्थर समझा है, वह हीरे-माणिक है, यह बहुत कठिन है। और जिन लोगो ने जीवन को पत्थर मानकर फेंकन में ही समय गंवा दिया है। अगर आज उनसे कोई कहने जाये कि जिन्हें तुम पत्थर समझकर फेंक रहे थे। वहां हीरे-मोती भी थे तो वे नाराज होंगे। क्रोध से भर जायेंगे। इसलिए नहीं कि जो बात कही गयी है वह गलत है, बल्कि इसलिए कि यह बात इस बात का स्मरण दिलाती है। कि उन्होंने बहुत सी संपदा फेंक दी।
लेकिन चाहे हमने कितनी ही संपदा फेंक दी हो, अगर एक क्षण भी जीवन का शेष है तो फिर भी हम कुछ बचा सकते है। और कुछ जान सकते है और कुछ पा सकते है। जीवन की खोज में कभी भी इतनी देर नहीं होती कि कोई आदमी निराश होने का कारण पाये।
लेकिन हमने यह मान ही लिया है—अंधेरे में, अज्ञान में कि जीवन में कुछ भी नहीं है सिवाय पत्थरों के। जो लोग ऐसा मानकर बैठ गये है, उन्होंने खोज के पहले ही हार स्वीकार कर ली है।
मैं इस हार के संबंध में, इस निराशा के संबंध के, इस मान ली गई पराजय के संबंध में सबसे पहले चेतावनी यह देना चाहता हूं के जीवन मिटटी और पत्थर नहीं है। जीवन में बहुत कुछ है। जीवन मिटटी और पत्थर के बीच बहुत कुछ छिपा है। अगर खोजने वाली आंखें हो तो जीवन से वह सीढ़ी भी निकलती है, जो परमात्मा तक पहुँचती है। इस शरीर में भी,जो देखने पर हड्डी मांस और चमड़ी से ज्यादा नहीं है। वह छिपा है, जिसका हड्डी, मांस और चमड़ी से कोई संबंध नहीं है। इस साधारण सी देह में भी जो आज जन्मती है कल मर जाती है। और मिटटी हो जाती है। उसका वास है—जो अमृत है, जो कभी जन्मता नहीं और कभी समाप्त नहीं होता है।
रूप के भीतर अरूप छिपा है और दृश्य के भीतर अदृश्य का वास है। और मृत्यु के कुहासे में अमृत की ज्योति छीपी है। मृत्यु के धुएँ में अमृत की लौ भी छिपी हुई है। वह फ्लेम वह ज्योति भी छिपी है, जिसकी की कोई मृत्यु नहीं है।
यह यात्रा कैसे हो सकती है कि धुएँ के भीतर छिपी हुई ज्योति को जान सकें, शरीर के भीतर छिपी हुई आत्मा को पहचान सकें, प्रकृति के भीतर छिपे हुए परमात्मा के दर्शन कर सकें। उस संबंध में ही तीन चरणों में मुझे बातें करनी है।
पहली बात,हमने जीवन के संबंध में ऐसे दृष्टिकोण बना लिए है, हमने जीवन के संबंध में ऐसी धारणाएं बना ली है। हमने जीवन के संबंध में ऐसा फलसफा खड़ा कर रखा है कि उस दृष्टिकोण और धारणा के कारण ही जीवन के सत्य को देखने से हम वंचित रह जाते है। हमने मान ही लिया है कि जीवन क्या है—बिना खोजें, बिना पहचाने, बिना जिज्ञासा किये, हमने जीवन के संबंध में कोई निश्चित बात ही समझ रखी है
हजारों वर्षों से हमें एक बात मंत्र की तरह पढ़ाई जाती है। जीवन आसार है, जीवन व्यर्थ हे, जीवन दु:ख है। सम्मोहन की तरह हमारे प्राणों पर यह मंत्र दोहराया गया है कि जीवन व्यर्थ है, जीवन आसार है, जीवन छोड़ने योग्य है। यह बात सुन-सुन कर धीरे-धीरे हमारे प्राणों में पत्थर की तरह मजबूत होकर बैठ गयी है। इस बात के कारण जीवन आसार दिखाई पड़ने लगा है। जीवन दुःख दिखाई पड़ने लगा है। इस बात के कारण जीवन ने सारा आनंद, सारा प्रेम,सारा सौंदर्य खो दिया है। मनुष्य एक कुरूपता बन गया है। मनुष्य एक दुःख का अड्डा बन गया है।
और जब हमने यह मान ही लिया कि जीवन व्यर्थ, आसार है, तो उसे सार्थक बनाने की सारी चेष्टा भी बंद हो गयी हो तो आश्चर्य नहीं है। अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन एक कुरूपता है ताक उसके भीतर सौंदर्य की खोज कैसे हो सकती है। और अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन सिर्फ छोड़ देने योग्य है, तो जिसे छोड़ ही देना है। उसे सजाना, उसे खोजना, उसे निखारना,इसकी कोई भी जरूरत नहीं है।
हम जीवन के साथ वैसा व्यवहार कर रहे है, जैसा कोई आदमी स्टेशन पर विश्रामालय के साथ व्यवहार करता है। वेटिंग रूम के साथ व्यवहार करता है। वह जानता है कि क्षण भर हम इस वेटिंग में ठहरे हुए है। क्षण भर बाद छोड़ देना है, इस वेटिंग रूम का प्रयोजन क्या है? क्या अर्थ है? वह वहां मूंगफली के छिलके भी डालता है। पान भी थूक देता है। गंदा भी करता है और सोचता है मुझे क्या प्रयोजन। क्षण भर बाद मुझे चले जाना है।
जीवन के संबंध में भी हम इसी तरह का व्यवहार करते है। जहां से हमें क्षण भर बाद चले जाना है। वहां सुन्दर और सत्य की खोज और निर्माण करने की जरूरत क्या है?
लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, जिंदगी जरूर हमें छोड़ कर चले जाना है; लेकिन जो असली जिंदगी है, उसे हमें कभी भी छोड़ने का कोई उपाय नहीं है। हम घर छोड़ देंगे,यह स्थान छोड़ देंगे; लेकिन जो जिंदगी का सत्य है, वह सदा हमारे साथ होगा। वह हम स्वयं है। स्थान बदल जायेंगे बदल जायेंगे, लेकिन जिंदगी…जिंदगी हमारे साथ होगी। उसके बदलने का कोई उपाय नहीं है।
और सवाल यह नहीं है कि जहां हम ठहरे थे उसे हमनें सुंदर किया था, जहां हम रुके थे वहां हमने प्रीतिकर हवा पैदा की थी। जहां हम दो क्षण को ठहरे थे वहां हमने आनंद की गीत गाया था। सवाल यह नहीं है कि वहां आनंद का गीत हमने गाया था। सवाल यह है कि जिसने आनंद का गीत गया था, उसके भीतर आनंद के और बड़ी संभावनाओं के द्वार खोल लिए। जिसने उस मकान को सुंदर बनाया था। उसने और बड़े सौंदर्य को पाने की क्षमता उपलब्ध कर ली है। जिसने दो क्षण उस वेटिंग रूम में भी प्रेम के बीताये थे, उसने और बड़े पर को पाने की पात्रता अर्जित कर ली है।
हम जो करते है उसी से हम निर्मित होते है। हमारा कृत्य अंतत: हमें निर्मित करता है। हमें बनाता है। हम जो करते है, वहीं धीरे-धीरे हमारे प्राण और हमारी आत्मा का निर्माता हो जाता है। जीवन के साथ हम क्या कर रहे है,इस पर निर्भर करेगा कि हम कैसे निर्मित हो रहे है। जीवन के साथ हमारा क्या व्यवहार है, इस पर निर्भर होगा कि हमारी आत्मा किन दिशाओं में यात्रा करेगी। किन मार्गों पर जायेगी। किन नये जगत की खोज करेगी।
जीवन के साथ हमारा व्यवहार हमें निर्मित करता है—यह अगर स्मरण हो, तो शायद जीवन को आसार, व्यर्थ माने की दृष्टि हमें भ्रांत मालूम पड़ें; तो शायद हमें जीवन को दुःख पूर्ण मानने की बात गलत मालूम पड़े, तो शायद हमें जीवन से विरोध रूख अधार्मिक मालूम पड़े।
लेकिन अब तक धर्म के नाम पर जीवन का विरोध ही सिखाया गया है। सच तो यह है कि अब तक का सारा धर्म मृत्यु वादी है, जीवन वादी नहीं, उसकी दृष्टि में मृत्यु के बाद जो है, वहीं महत्वपूर्ण है, मृत्यु के पहले जो है वह महत्वपूर्ण नहीं है। अब तक के धर्म की दृष्टि में मृत्यु की पूजा है, जीवन का सम्मान नहीं। जीवन के फूलों का आदर नहीं, मृत्यु के कुम्हला गये, जा चुके, मिट गये, फूलों की क़ब्रों की , प्रशंसा और श्रद्धा है।
अब तक का सारा धर्म चिन्तन कहता है कि मृत्यु के बाद क्या है—स्वर्ग,मोक्ष, मृत्यु के पहले क्या है। उससे आज तक के धर्म को कोई संबंध नहीं रहा है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मृत्यु के पहले जो है, अगर हम उसे ही संभालने मे असमर्थ है, तो मृत्यु के बाद जो है उसे हम संभालने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। मृत्यु के पहले जो है अगर वहीं व्यर्थ छूट जाता है, तो मृत्यु के बाद कभी भी सार्थकता की कोई गुंजाइश कोई पात्रता, हम अपने में पैदा नहीं करा सकेंगे। मृत्यु की तैयारी भी इस जीवन में जो आसपास है मौजूद है उस के द्वारा करनी है। मृत्यु के बाद भी अगर कोई लोक है, तो उस लोक में हमें उसी का दर्शन होगा। जो हमने जीवन में अनुभव किया है। और निर्मित किया है। लेकिन जीवन को भुला देने की,जीवन को विस्मरण कर देने की बात ही अब तक नहीं की गई।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जीवन के अतिरिक्त न कोई परमात्मा है, न हो सकता है।
मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि जीवन को साध लेना ही धर्म की साधना है और जीवन में ही परम सत्य को अनुभव कर लेना मोक्ष को उपल्बध कर लेने की पहली सीढ़ी है।
जो जीवन को ही चूक जाते है वह और सब भी चूक जायेगा,यह निश्चित है।
लेकिन अब तक का रूख उलटा रहा है। वह रूख कहता है, जीवन को छोड़ो। वह रूख कहता है जीवन को त्यागों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन में खोजों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन को जीने की कला सीख़ों। वह यह भी नहीं कहता है कि जीवन को जीने पर निर्भर करता है कि जीवन कैसा मालुम पड़ता है। अगर जीवन अंधकार पूर्ण मालूम पड़ता है, तो वह जीने का गलत ढंग है। यही जीवन आनंद की वर्षा भी बन सकता है। आगर जीने का सही ढंग उपलब्ध हो जाये।
धर्म जीवन की तरफ पीठ कर लेना नहीं है, जीवन की तरफ पूरी तरह आँख खोलना है।
धर्म जीवन से भागना नहीं है, जीवन को पूरा आलिंगन में ले लेना है।
धर्म है जीवन का पूरा साक्षात्कार।
यही शायद कारण है कि आज तक के धर्म में सिर्फ बूढ़े लोग ही उत्सुक रहे है। मंदिरों में जायें, चर्चों में, गिरजा घरों में, गुरु द्वारों में—और वहां वृद्ध लोग दिखाई पड़ेंगे। वहां युवा दिखाई नहीं पड़ते, वहां बच्चे दिखाई नहीं पड़ते,क्या करण है?
एक ही कारण है। अब तक का हमारा धर्म सिर्फ बूढ़े लोगों का धर्म है। उन लोगों का धर्म है, जिनकी मौत करीब आ रही है। और अब मौत से भयभीत हो गये है, मौत के बाद की चिंता के संबंध में आतुर है, और जानना चाहते है कि मौत के बाद क्या है।
जो धर्म मौत पर आधारित है, वह धर्म पूरे जीवन को कैसे प्रभावित कर सकेगा। जो धर्म मौत का चिंतन करता है, वह पृथ्वी को धार्मिक कैसे बना सकता है।
वह नहीं बना सका। पाँच हजार वर्षों की धार्मिक शिक्षा के बाद भी पृथ्वी रोज-रोज अधार्मिक होती जा रही है। मंदिर है, मसजिदें है, चर्च है, पुजारी है, पुरोहित है, सन्यासी है, लेकिन पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है। और नहीं हो सकेगी। क्योंकि धर्म का आधार ही गलत है। धर्म कार आधार जीवन नहीं है, धर्म का आधार मृत्यु है। धर्म का आधार खिलते हुए फूल नहीं है, कब्र है। जिस धर्म का आधार मृत्यु है, वह धर्म अगर जीवन के प्राणों को स्पंदित न कर पाता हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है? जिम्मेवारी किस की है?
मैं इन तीन दिनों में जीवन के धर्म के संबंध में बात करना चाहता हूं और इसीलिए पहला सूत्र समझ लेना जरूरी है। और इस सूत्र के संबंध में आज तक छिपाने की, दबाने की, भूल जाने की चेष्टा की गयी है। लेकिन जानने और खोजने की नहीं। और उस भूलने और विस्मृत कर देने की चेष्टा के दुष्परिणाम सारे जगत में व्याप्त हो गये है।
मनुष्य के सामान्य जीवन के में केंद्रीय तत्व क्या है—परमात्मा? आत्मा? सत्य?
नहीं,मनुष्य के प्राणों में, सामान्य मनुष्य के प्राणों में,जिसने कोई खोज नहीं की, जिसने कोई यात्रा नहीं की। जिसने कोई साधना नहीं की। उसके प्राणों की गहराई में क्या है—प्रार्थना? पूजा? नहीं,बिलकुल नहीं।
अगर हम सामान्य मनुष्य के जीवन-ऊर्जा में खोज करें,उसकी जीवन शक्ति को हम खोजने जायें तो न तो वहां परमात्मा है, न वहां पूजा है, न प्रार्थना है,न ध्यान है, वहां कुछ और ही दिखाई देता है, जो दिखाई पड़ता है उसे भूलने की चेष्टा की गई है। उसे जानने और समझने की नहीं।
वहां क्या दिखाई पड़ेगा अगर हम आदमी के प्राणों को चीरे और फाड़े और वहां खोजें? आदमी को छोड़ दें, अगर आदमी से इतन जगत की भी हम खोज-बीन करें तो वहां प्राणों की गहराईयों में क्या मिलेगा? अगर हम एक पौधे की जांच-बीन करें तो क्या मिलेगा? एक पौधा क्या कर रहा है?
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एक पौधा पूरी चेष्टा कर रहा है—नये बीज उत्पन्न करने की, एक पौधा के सारे प्राण,सारा रस , नये बीज इकट्ठे करने, जन्म नें की चेष्टा कर रहा है। एक पक्षी क्या कर रहा है। एक पशु क्या कर रहा है।
अगर हम सारी प्रकृति में खोजने जायें तो हम पायेंगे, सारी प्रकृति में एक ही, एक ही क्रिया जोर से प्राणों को घेर कर चल रही है। और वह क्रिया है सतत-सृजन की क्रिया। वह क्रिया है ‘’क्रिएशन’’ की क्रिया। वह क्रिया है जीवन को पुनरुज्जीवित, नये-नये रूपों में जीवन देने की क्रिया। फूल बीज को संभाल रहे है, फल बीज को संभाल रहे है। बीज क्या करेगा? बीज फिर पौधा बनेगा। फिर फल बनेगा।
अगर हम सारे जीवन को देखें, तो जीवन जन्म ने की एक अनंत क्रिया का नाम है। जीवन एक ऊर्जा है, जो स्वयं को पैदा करने के लिए सतत संलग्न है और सतत चेष्टा शील है।
आदमी के भीतर भी वहीं है। आदमी के भीतर उस सतत सृजन की चेष्टा का नाम हमने ‘सेक्स’ दे रखा है, काम दे रखा है। इस नाम के कारण उस ऊर्जा को एक गाली मिल गयी है। एक अपमान । इस नाम के कारण एक निंदा का भाव पैदा हो गया है। मनुष्य के भीतर भी जीवन को जन्म देने की सतत चेष्टा चल रही है। हम उसे सेक्स कहते है, हम उसे काम की शक्ति कहते है।
लेकिन काम की शक्ति क्या है?
समुद्र की लहरें आकर टकरा रही है समुद्र के तट से हजारों वर्षों से। लहरें चली आती है, टकराती है, लौट जाती है। फिर आती है, टकराती है लौट जाती है। जीवन भी हजारों वर्षों से अनंत-अनंत लहरों में टकरा रहा है। जरूर जीवन कहीं उठना चाहता होगा। यह समुद्र की लहरें, जीवन की ये लहरें कहीं ऊपर पहुंचना चाहती है; लेकिन किनारों से टकराती है और नष्ट हो जाती है। फिर नयी लहरें आती है, टकराती है और नष्ट हो जाती है। यह जीवन का सागर इतने अरबों बरसों से टकरा रहा है, संघर्ष ले रहा है। रोज उठता है, गिर जाता है, क्या होगा प्रयोजन इसके पीछे? जरूर इसके पीछे कोई बृहत्तर ऊँचाइयों को छूने का आयोजन चल रहा होगा। जरूर इसके पीछे कुछ और गहराइयों को जानने का प्रयोजन चल रहा है। जरूर जीवन की सतत प्रक्रिया के पीछे कुछ और महान तर जीवन पैदा करने का प्रयास चल रहा है।
मनुष्य को जमीन पर आये बहुत दिन नहीं हुए है, कुछ लाख वर्ष हुए। उसके पहले मनुष्य नहीं था। लेकिन पशु थे। पशु को आये हुए भी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ। एक जमाना था कि पशु भी नहीं था। लेकिन पौधे थे। पौधों को भी आये बहुत समय नहीं हुआ। एक समय था जब पौधे भी नहीं थे। पहाड़ थे। नदिया थी, सागर थे। पत्थर थे। पत्थर, पहाड़ और नदियों की जो दुनिया थी वह किस बात के लिए पीड़ित थी?
वह पौधों को पैदा करना चाहती थी। पौधे धीरे-धीरे पैदा हुए। जीवन ने एक नया रूप लिया। पृथ्वी हरियाली से भर गयी। फूल खिल गये।
लेकिन पौधे भी अपने से तृप्त नहीं थे। वे सतत जीवन को जन्म देते है। उसकी भी कोई चेष्टा चल रही थी। वे पशुओं को पक्षियों को जन्म देना चाहते है। पशु, पक्षी पैदा हुए।
हजारों लाखों बरसों तक पशु, पक्षियों से भरा था यह जगत, लेकिन मनुष्य को कोई पता नहीं था। पशुओं और पक्षियों के प्राणों के भीतर निरंतर मनुष्य भी निवास कर रहा था। पैदा होने की चेष्टा कर रहा था। फिर मनुष्य पैदा हुआ।
अब मनुष्य किस लिए?
मनुष्य निरंतर नये जीवन को पैदा करने के लिए आतुर है। हम उसे सेक्स कहते है, हम उसे काम की वासना कहते है। लेकिन उस वासना का मूल अर्थ क्या है? मूल अर्थ इतना है कि मनुष्य अपने पर समाप्त नहीं होना चाहता, आगे भी जीवन को पैदा करना चाहता है। लेकिन क्यों? क्या मनुष्य के प्राणों में, मनुष्य के ऊपर किसी ‘सुपरमैन’ को, किसी महा मानव को पैदा करने की कोई चेष्टा चल रही है?
निश्चित ही चल रही है। निश्चित ही मनुष्य के प्राण इस चेष्टा में संलग्न है कि मनुष्य से श्रेष्ठतर जीवन जन्म पा सके। मनुष्य से श्रेष्ठतर प्राणी आविर्भूत हो सके। नीत्से से लेकर अरविंद तक, पतंजलि से लेकिर बर ट्रेन्ड रसल तक। सारे मनुष्य के प्राणों में एक कल्पना, एक सपने की तरह बैठी रही कि मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे हो सके। लेकिन मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे होगा?
हमने तो हजारों वर्षों से इस पैदा होने की कामना को ही निंदित कर रखा है। हमने तो सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने मैं भयभीत होते है। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपा कर रख दिया है, जैसे वह है ही नहीं। जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में ओर कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है दबाया है, क्यों?
दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाता है।
शायद आप में से किसी ने एक फ्रैंच वैज्ञानिक कुये के एक नियम के संबंध में सुना होगा। वह नियम है ’’लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट’’। कुये ने एक नियम ईजाद किया है, ‘विपरीत परिणाम का’। हम जो करना चाहते है, हम इस ढंग से कर सकते है। कि जो हम परिणाम चाहते है, उसके उल्टा परिणाम हो जाये।
एक आदमी साइकिल चलाना सीखता है। बड़ा रास्ता है। चौड़ा रास्ता है। एक छोटा सा पत्थर रास्ते के किनारे पडा हुआ है। वह साइकिल चलाने वाला घबराता है। की मैं कहीं उस पत्थर से न टकरा जाऊँ। अब इतना चौड़ा रास्ता पडा है। वह साइकिल चलने वाला अगर आँख बंध कर के भी चलाना चाहे तो भी उस पत्थर से टकराने की संभावना न के बराबर है। इसका सौ में से एक ही मौका है वह पत्थर से टकराये। इतने चौड़े रास्ते पर कहीं से भी निकल सकता है लेकिन वह देखकर घबराता है। कि कहीं पत्थर से टकरा न जाऊँ। और जैसे ही वह घबराता है, मैं पत्थर से न टकरा जाऊँ। सारा रास्ता विलीन हो जाता है। केवल पत्थर ही दिखाई दिया। अब उसकी साइकिल का चाक पत्थर की और मुड़ने लगा। वह हाथ पैर से घबराता है। उसकी सारी चेतना उस पत्थर की और देखने लगती है। और एक सम्मोहित हिप्रोटाइज आदमी कि तरह वह पत्थर की तरफ खिंच जाता है। और जा कर पत्थर से टकरा जाता है। नया साईकिल सीखने वाला उसी से टकरा जाता है जिससे बचना चाहता है। लैम्पो से टकरा जाता है, खम्बों से टकरा जाता है, पत्थर से टकरा जाता है। इतना बड़ा रास्ता था कि अगर कोई निशानेबाज ही चलाने की कोशिश करता तो उस पत्थर से टकरा सकता था। लेकिन यह सिक्खड़ आदमी कैसे उस पत्थर से टकरा गया।
कुये कहता है कि हमारी चेतना का एक नियम है: लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट, हम जिस चीज से बचना चाहते है, चेतना उसी पर केंद्रित हो जाती है। और परिणाम में हम उसी से टकरा जाते है। पाँच हजार साल से आदमी सेक्स से बचना चाह रहा है। और परिणाम इतना हुआ की गली कूचे हर जगह जहां भी आदमी जाता है वहीं सेक्स से टकरा जाता है। लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट मनुष्य की आत्मा को पकड़े हुए है।
क्या कभी आपने वह सोचा है कि आप चित को जहां से बचाना चाहते है, चित वहीं आकर्षित हो जाता है। वहीं निमंत्रित हो जात है। जिन लोगो ने मनुष्य को सेक्स के विरोध में समझाया, उन लोगों ने ही मनुष्य को कामुक बनाने का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया है।
मनुष्य की अति कामुकता गलत शिक्षाओं का परिणाम है।
और आज भी हम भयभीत होते है कि सेक्स की बात न की जाये। क्यों भयभीत होते है? भयभीत इसलिए होते है कि हमें डर है कि सेक्स के संबंध में बात करने से लोग और कामुक हो जायेंगे।
मैं आपको कहना चाहता हूं कि यह बिलकुल ही गलत भ्रम है। यह शत-प्रतिशत गलत है। पृथ्वी उसी दिन सेक्स से मुक्त होगी, जब हम सेक्स के संबंध में सामान्य, स्वास्थ बातचीत करने में समर्थ हो जायेंगे।
जब हम सेक्स को पूरी तरह से समझ सकेंगे, तो ही हम सेक्स का अतिक्रमण कर सकेंगे।
जगत में ब्रह्मचर्य का जन्म हो सकता है। मनुष्य सेक्स के ऊपर उठ सकता है। लेकिन सेक्स को समझकर, सेक्स को पूरी तरह पहचान कर, उस की ऊर्जा के पूरे अर्थ, मार्ग, व्यवस्था को जानकर, उसके मुक्त हो सकता है।
आंखे बंद कर लेने से कोई कभी मुक्त नहीं हो सकता। आंखें बंद कर लेने वाले सोचते हों कि आंखे बंद कर लेने से शत्रु समाप्त हो गया है। मरुस्थल में शुतुरमुर्ग भी ऐसा ही सोचता है। दुश्मन हमने करते है तो शुतुरमुर्ग रेत में सर छिपा कर खड़ा हो जाता है। और सोचता है कि जब दुश्मन मुझे दिखाई नहीं देता ताक मैं दुशमन को कैसे दिखाई दे नहीं सकता। लेकिन यह वर्क—शुतुरमुर्ग को हम क्षमा भी कर सकते है। आदमी को क्षमा नहीं किया जा सकता है।
सेक्स के संबंध में आदमी ने शुतुरमुर्ग का व्यवहार किया है। आज तक। वह सोचता है, आँख बंद कर लो सेक्स के प्रति तो सेक्स मिट गया। अगर आँख बंद कर लेने से चीजें मिटती तो बहुत आसान थी जिंदगी। बहुत आसान होती दुनिया। आँख बंद करने से कुछ मिटता नहीं है। बल्कि जिस चीज के संबंध में हम आँख बंद करते है। हम प्रमाण देते है कि हम उस से भयभीत है। हम डर गये है। वह हमसे ज्यादा मजबूत है। उससे हम जीत नहीं सकते है, इसलिए आँख बंद करते है। आँख बंद करना कमजोरी का लक्षण है।
और सेक्स के बाबत सारी मनुष्य जाति आँख बंद करके बैठ गयी है। न केवल आँख बंद करके बैठ गयी है, बल्कि उसने सब तरह की लड़ाई भी सेक्स से ली है। और उसके परिणाम, उसके दुष्परिणाम सारे जगत में ज्ञात है।
अगर सौ आदमी पागल होते है, तो उनमें से 98 आदमी सेक्स को दबाने की वजह से पागल होते है। अगर हजारों स्त्रियों हिस्टीरिया से परेशान है तो उसमें से सौ में से 99 स्त्रियों के पीछे हिस्टीरिया के मिरगी के बेहोशी के, सेक्स की मौजूदगी है। सेक्स का दमन मौजूद है।
अगर आदमी इतना बेचैन, अशांत इतना दुःखी और पीड़ित है तो इस पीडित होने के पीछे उसने जीवन की एक बड़ी शक्ति को बिना समझे उसकी तरफ पीठ खड़ी कर ली है। उसका कारण है। और परिणाम उलटे आते है।
अगर हम मनुष्य का साहित्य उठाकर कर देखें, अगर किसी देवलोक से कभी कोई देवता आये या चंद्रलोक से या मंगलग्रह से कभी कोई यात्री आये और हमारी किताबें पढ़े, हमारा साहित्य देखे, हमारी कविता पढ़, हमारे चित्र देखे तो बहुत हैरान हो जायेगा। वह हैरान हो जायेगा यह जानकर कि आदमी का सारा साहित्य सेक्स पर केंद्रित है? आदमी की हर कविताएं सेक्सुअल क्यों है? आदमियों की सारी कहानियां, सारे उपन्यास सेक्सुअल क्यों है। आदमी की हर किताब के उपर नंगी औरत की तस्वीर क्यों है? आदमी की हर फिल्म नंगे आदमी की फिल्म क्यों है। वह बहुत हैरान होगा। अगर कोई मंगल से आकर हमें इस हालत में देखेगा तो बहुत हैरान होगा। वह सोचगा, आदमी सेक्स के सिवाय क्या कुछ भी नहीं सोचता? और आदमी से अगर पूछेगा, बातचीत करेगा तो बहुत हैरान हो जायेगा।
आदमी बातचीत करेगा आत्मा की, परमात्मा की, स्वर्ग की, मोक्ष की, सेक्स की कभी कोई बात नहीं करेगा। और उसका सारा व्यक्तित्व चारों तरफ से सेक्स से भरा हुआ है। वह मंगलग्रह का वासी तो बहुत हैरान होगा। वह कहेगा, बात चीत कभी नहीं कि जाती जिस चीज की , उसको चारों तरफ से तृप्त करने की हजार-हजार पागल कोशिशें क्यों की जा रही है?
आदमी को हमने ‘’परवर्ट’’ किया है, विकृत किया है और अच्छे नामों के आधार पर विकृत किया है। ब्रह्मचर्य की बात हम करते है। लेकिन कभी इस बात की चेष्टा नहीं करते कि पहले मनुष्य की काम की ऊर्जा को समझा जाये, फिर उसे रूपान्तरित करने के प्रयोग भी किये जा सकते है। बिना उस ऊर्जा को समझे दमन की संयम की सारी शिक्षा, मनुष्य को पागल, विक्षिप्त और रूग्ण करेगी। इस संबंध में हमें कोई भी ध्यान नहीं है। यह मनुष्य इतना रूग्ण, इतना दीन-हीन कभी भी न था, इतना ‘पायजनस’ भी न था। इतना दुःखी भी न था।
मैं एक अस्पताल के पास से निकलता था। मैंने एक तख्ते पर अस्पताल के एक लिखी हुई सूचना पढ़ी। लिखा था तख्ती पर—‘’एक आदमी को बिच्छू ने काटा है, उसका इलाज किया गया है। वह एक दिन में ठीक होकर घर वापस चला गया। एक दूसरे आदमी को सांप ने काटा था। उसका तीन दिन में इलाज किया गया। और वह स्वास्थ हो कर घर वापिस चला गया। उस पर तीसरी सुचना थी कि एक और आदमी को पागल कुत्ते ने काट लिया था। उस का दस दिन में इलाज हो रहा है। वह काफी ठीक हो गया है और शीध्र ही उसके पूरी तरह ठीक हो जाने की उम्मीद है। और उस पर चौथी सूचना लिखी थी, कि एक आदमी को एक आदमी ने काट लिया था। उसे कई सप्ताह हो गये। वह बेहोश है, और उसके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है।
मैं बहुत हैरान हुआ। आदमी का काटा हुआ इतना जहरीला हो सकता है।
लेकिन अगर हम आदमी की तरफ देखोगें तो दिखाई पड़ेगा—आदमी के भीतर बहुत जहर इकट्ठा हो गया है। और उस जहर के इकट्ठे हो जाने का पहला सुत्र यह है कि हमने आदमी के निसर्ग को, उसकी प्रकृति को स्वीकार नहीं किया है। उसकी प्रकृति को दबाने और जबरदस्ती तोड़ने की चेष्टा की है। मनुष्य के भीतर जो शक्ति है। उस शक्ति को रूपांतरित करने का, ऊंचा ले जाने का, आकाशगामी बनाने का हमने कोई प्रयास नहीं किया। उस शक्ति के ऊपर हम जबरदस्ती कब्जा करके बैठ गये है। वह शक्ति नीचे से ज्वालामुखी की तरह उबल रही है। और धक्के दे रही है। वह आदमी को किसी भी क्षण उलटा देने की चेष्टा कर रही है। और इसलिए जरा सा मौका मिल जाता है तो आपको पता है सबसे पहली बात क्या होती है।
अगर एक हवाई जहाज गिर पड़े तो आपको सबसे पहले उस हवाई जहाज में अगर पायलट हो ओर आप उसके पास जाएं—उसकी लाश के पास तो आपको पहला प्रश्न क्या उठेगा, मन में। क्या आपको ख्याल आयेगा—यह हिन्दू है या मुसलमान? नहीं। क्या आपको ख्याल आयेगा कि यह भारतीय है या कि चीनी? नहीं। आपको पहला ख्याल आयेगा—वह आदमी है या औरत? पहला प्रश्न आपके मन में उठेगा, वह स्त्री है या पुरूष? क्या आपको ख्याल है इस बात का कि वह प्रश्न क्यों सबसे पहले ख्याल में आता है? भीतर दबा हुआ सेक्स है। उस सेक्स के दमन की वजह से बाहर स्त्रीयां और पुरूष अतिशय उभर कर दिखायी पड़ती है।
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क्या आपने कभी सोचा है? आप किसी आदमी का नाम भूल सकते है, जाति भूल सकते है। चेहरा भूल सकते है? अगर मैं आप से मिलूं या मुझे आप मिलें तो मैं सब भूल सकता हूं—कि आपका नाम क्या था,आपका चेहरा क्या था, आपकी जाति क्या थी, उम्र क्या थी आप किस पद पर थे—सब भूल सकते है। लेकिन कभी आपको ख्याल आया कि आप यह भूल सके है कि जिस से आप मिले थे वह आदमी था या औरत? कभी आप भूल सकते है इस बात को कि जिससे आप मिले थे, वह पुरूष है या स्त्री? नहीं यह बात आप कभी नहीं भूल सके होगें। क्या लेकिन? जब सारी बातें भूल जाती है तो यह क्यों नहीं भूलता?
हमारे भीतर मन में कहीं सेक्स बहुत अतिशय हो बैठा है। वह चौबीस घंटे उबल रहा है। इसलिए सब बातें भूल जाती है। लेकिन यह बात नहीं भूलती है। हम सतत सचेष्ट है।
यह पृथ्वी तब तक स्वस्थ नहीं हो सकेगी, जब तक आदमी और स्त्रियों के बीच यह दीवार और यह फासला खड़ा हुआ है। यह पृथ्वी तब तक कभी भी शांत नहीं हो सकेगी,जब तक भीतर उबलती हुई आग है और उसके ऊपर हम जबरदस्ती बैठे हुए है। उस आग को रोज दबाना पड़ता है। उस आग को प्रतिक्षण दबाये रखना पड़ता है। वह आग हमको भी जला डालती है। सारा जीवन राख कर देती है। लेकिन फिर भी हम विचार करने को राज़ी नहीं होते। यह आग क्या थी?
और मैं आपसे कहता हूं अगर हम इस आग को समझ लें, तो यह आग दुश्मन नहीं दोस्त है। अगर हम इस आग को समझ लें तो यह हमें जलायेगी नहीं, हमारे घर को गर्म भी कर सकती है। सर्दियों में,और हमारी रोटियाँ भी सेक सकती है। और हमारी जिंदगी में सहयोगी और मित्र भी हो सकती है।
लाखों साल तक आकाश में बिजली चमकती थी। कभी किसी के ऊपर गिरती थी और जान ले लेती थी। कभी किसी ने सोचा भी नथा कि एक दिन घर के पंखा चलायेगी यह बिजली। कभी यह रोशनी करेगी अंधेरे में, यह किसी ने नहीं सोचा था। आज—आज वही बिजली हमारी साथी हो गयी है। क्यों?
बिजली की तरफ हम आँख मूंदकर खड़े हो जाते तो हम कभी बिजली के राज को न समझ पाते और न कभी उसका उपयोग कर पाते। वह हमारी दुश्मन ही बनी रहती। लेकिन नहीं, आदमी ने बिजली के प्रति दोस्ताना भाव बरता। उसने बिजली को समझने की कोशिश की, उसने प्रयास किया जानने के और धीरे-धीरे बिजली उसकी साथी हो गयी। आज बिना बिजली के क्षण भर जमीन पर रहना मुश्किल हो जाये।
मनुष्य के भीतर बिजली से भी अधिक ताकत है सेक्स की।
मनुष्य के भीतर अणु की शक्ति से भी बड़ी शक्ति है सेक्स की।
कभी आपने सोचा लेकिन, यह शक्ति क्या है और कैसे इसे रूपान्तरित करें? एक छोटे-से अणु में इतनी शक्ति है कि हिरोशिमा का पूरा का नगर जिस में एक लाख आदमी भस्म हो गये। लेकिन क्या आपने सोचा कि मनुष्य के काम की ऊर्जा का एक अणु एक नये व्यक्ति को जन्म देता है। उस व्यक्ति में गांधी पैदा हो सकता है, उस व्यक्ति में महावीर पैदा हो सकता है। उस व्यक्ति में बुद्ध पैदा हो सकता है, क्राइस्ट पैदा हो सकता है, उससे आइन्सटीन पैदा हो सकता है। और न्यूटन पैदा हो सकता है। एक छोटा सा अणु एक मनुष्य की काम ऊर्जा का, एक गांधी को छिपाये हुए है। गांधी जैसा विराट व्यक्ति पैदा हो सकता है।
लेकिन हम सेक्स को समझने को राज़ी नहीं है। लेकिन हम सेक्स की ऊर्जा के संबंध में बात करने की हिम्मत जुटाने को राज़ी नहीं है। कौन सा भय हमें पकड़े हुए है कि जिससे सारे जीवन का जन्म होता है। उस शक्ति को हम समझना नहीं चाहते?कौन सा डर है कौन सी घबराहट है?
मैंने पिछली बम्बई की सभा में इस संबंध में कुछ बातें कहीं थी। तो बड़ी घबराहट फैल गई। मुझे बहुत से पत्र पहुंचे कि आप इस तरह की बातें मत करें। इस तरह की बात ही मत करें। मैं बहुत हैरान हुआ कि इस तरह की बात क्यों न की जाये? अगर शक्ति है हमारे भीतर तो उसे जाना क्यों न जाये? क्यों ने पहचाना जाये? और बिना जाने पहचाने, बिना उसके नियम समझे,हम उस शक्ति को और ऊपर कैसे ले जा सकते है? पहचान से हम उसको जीत भी सकते है, बदल भी सकते है, लेकिन बिना पहचाने तो हम उसके हाथ में ही मरेंगे और सड़ेंगे, और कभी उससे मुक्त नहीं हो सकते।
जो लोग सेक्स क संबंध में बात करने की मनाही करते है, वे ही लोग पृथ्वी को सेक्स के गड्ढे में डाले हुए है। यह मैं आपसे कहना चाहता हूं, जो लोग घबराते है और जो समझते है कि धर्म का सेक्स से कोई संबंध नहीं, वह खुद तो पागल है ही, वे सारी पृथ्वी को पागल बनाने में सहयोग कर रहे है।
धर्म का संबंध मनुष्य की ऊर्जा के ‘’ट्रांसफॉर्मेशन’’ से है। धर्म का संबंध मनुष्य की शक्ति को रूपांतरित करने से है।
धर्म चाहता है कि मनुष्य के व्यक्तित्व में जो छिपा है, वह श्रेष्ठतम रूप से अभिव्यक्त हो जाये। धर्म चाहता है कि मनुष्य का जीवन निम्न से उच्च की एक यात्रा बने। पदार्थ से परमात्मा तक पहुंच जाये।
लेकिन यह चाह तभी पूरी हो सकती है…..हम जहां जाना चाहते है, उस स्थान को समझना उतना उपयोगी नहीं है। जितना उस स्थान को समझना उपयोगी है। क्योंकि यह यात्रा कहां से शुरू करनी है।
सेक्स है फैक्ट, सेक्स जो है वह तथ्य है मनुष्य के जीवन का। और परमात्मा अभी दूर है। सेक्स हमारे जीवन का तथ्य हे। इस तथ्य को समझ कर हम परमात्मा की यात्रा चल सकते है। लेकिन इसे बिना समझे एक इंच आगे नहीं जा सकते। कोल्हू के बेल कि तरह इसी के आप पास घूमते रहेंगे।
मैंने पिछली सभा में कहा था, कि मुझे ऐसा लगता है। हम जीवन की वास्तविकता को समझने की भी तैयारी नहीं दिखाते। तो फिर हम और क्या कर सकते है। और आगे क्या हो सकता है। फिर ईश्वर की परमात्मा की सारी बातें सान्त्वना ही, कोरी सान्त्वना की बातें है और झूठ है। क्योंकि जीवन के परम सत्य चाहे कितने ही नग्न क्यों न हो, उन्हें जानना ही पड़ेगा। समझना ही पड़ेगा।
तो पहली बात तो यह जान लेना जरूरी है कि मनुष्य का जन्म सेक्स में होता है। मनुष्य का सारा जीवन व्यक्तित्व सेक्स के अणुओं से बना हुआ है। मनुष्य का सारा प्राण सेक्स की उर्जा से भरा हुआ है। जीवन की उर्जा अर्थात काम की उर्जा। यह तो काम की ऊर्जा है, यह जा सेक्स की ऊर्जा है, यह क्या है? यह क्यों हमारे जीवन को इतने जोर से आंदोलित करती है? क्यों हमारे जीवन को इतना प्रभावित करती है? क्यों हम धूम-धूम कर सेक्स के आस-पास, उसके ईद-गिर्द ही चक्कर लगाते है। और समाप्त हो जाते है। कौन सा आकर्षण है इसका?
हजारों साल से ऋषि,मुनि इंकार कर रहे है, लेकिन आदमी प्रभावित नहीं हुआ मालूम पड़ता। हजारों साल से वे कह रहे है कि मुख मोड़ लो इससे। दूर हट जाओ इससे। सेक्स की कल्पना और काम वासना छोड़ दो। चित से निकाल डालों ये सारे सपने।
लेकिन आदमी के चित से यह सपने निकले ही नहीं। कभी निकल भी नहीं सकते है इस भांति। बल्कि मैं तो इतना हैरान हुआ हूं—इतना हैरान हुआ हूं। वेश्याओं से भी मिला हुं, लेकिन वेश्याओं ने मुझसे सेक्स की बात नहीं की। उन्होंने आत्म, परमात्मा के संबंध में पूछताछ की। और मैं साधु संन्यासियों से भी मिला हूं। वे जब भी अकेले में मिलते है तो सिवाये सेक्स के और किसी बात के संबंध में पूछताछ नहीं करते। मैं बहुत हैरान हुआ। मैं हैरान हुआ हूं इस बात को जानकर कि साधु-संन्यासियों को जो निरंतर इसके विरोध में बोल रहे है, वे खुद ही चितके तल पर वहीं ग्रसित है। वहीं परेशान है। तो जनता से आत्मा परमात्मा की बातें करते है, लेकिन भीतर उनके भी समस्या वही है।
होगी भी। स्वाभाविक है, क्योंकि हमने उस समस्या को समझने की भी चेष्टा नहीं की है। हमने उस ऊर्जा के नियम भी जानने नहीं चाहे है। हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि मनुष्य का इतना आकर्षण क्यों है। कौन सिखाता है, सेक्स आपको।
सारी दूनिया तो सीखने के विरोध में सारे उपाय करती है। मॉं-बाप चेष्टा करते है कि बच्चे को पता न चल जाये। शिक्षक चेष्टा करता है। धर्म शास्त्र चेष्टा करते है कहीं स्कूल नहीं, कहीं कोई युनिवर्सिटी नहीं। लेकिन आदमी अचानक एक दिन पाता है कि सारे प्राण काम की आतुरता से भर गये है। यह कैसे हो जाता है। बिना सिखाये ये क्या होता है।
सत्य की शिक्षा दी जाती है। प्रेम की शिक्षा दी जाती है। उसका तो कोई पता नहीं चलता। सेक्स का आकर्षण इतना प्रबल है, इतना नैसर्गिक केंद्र क्या है, जरूर इसमें कोई रहस्य है और इसे समझना जरूरी है। तो शायद हम इससे मुक्त भी हो सकते है।
पहली बात तो यह है कि मनुष्य के प्राणों में जो सेक्स का आकर्षण है। वह वस्तुत: सेक्स का आकर्षण नहीं है। मनुष्य के प्राणों में जो काम वासना है, वह वस्तुत: काम की वासना नहीं है, इसलिए हर आदमी काम के कृत्य के बाद पछताता है। दुःखी होता है पीडित होता है। सोचता है कि इससे मुक्त हो जाऊँ। यह क्या है?
लेकिन आकर्षण शायद कोई दूसरा है। और वह आकर्षण बहुत रिलीजस, बहुत धार्मिक अर्थ रखता है। वह आकर्षण यह है…..कि मनुष्य के सामान्य जीवन में सिवाय सेक्स की अनुभूति के वह कभी भी अपने गहरे से गहरे प्राणों में नहीं उतर पाता है। और किसी क्षण में कभी गहरे नहीं उतरता है। दुकान करता है, धंधा करता है। यश कमाता है, पैसा कमाता है, लेकिन एक अनुभव काम का, संभोग का, उसे गहरे ले जाता है। और उसकी गहराई में दो घटनायें घटती है, एक संभोग के अनुभव में अहंकार विसर्जित हो जाता है। ‘’इगोलेसनेस’’ पैदा हो जाती है। एक क्षण के लिए अहंकार नहीं रह जाता, एक क्षण को यह याद भी नहीं रह जाता कि मैं हूं।
क्या आपको पता है, धर्म में श्रेष्ठतम अनुभव में ‘मैं’ बिलकुल मिट जाता है। अहंकार बिलकुल शून्य हो जाता है। सेक्स के अनुभव में क्षण भर को अहंकार मिटता है। लगता है कि हूं या नहीं। एक क्षण को विलीन हो जाता है मेरा पन का भाव।
दूसरी घटना घटती है। एक क्षण के लिए समय मट जाता है ‘’टाइमलेसनेस’’ पैदा हो जाती है। जीसस ने कहा है समाधि के संबंध में: ‘’देयर शैल बी टाईम नौ लांगर’’। समाधि का जो अनुभव है वहां समय नहीं रह जाता है। वह कालातीत है। समय बिलकुल विलीन हो जाता है। न कोई अतीत है, न कोई भविष्य—शुद्ध वर्तमान रह जाता है।
सेक्स के अनुभव में यह दूसरी घटना घटती है। न कोई अतीत रह जाता है , न कोई भविष्य। मिट जाता है, एक क्षण के लिए समय विलीन हो जाता है।
यह धर्म अनुभूति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है—इगोलेसनेस, टाइमलेसनेस।
दो तत्व है, जिसकी वजह से आदमी सेक्स की तरफ आतुर होता है और पागल होता है। वह आतुरता स्त्री के शरीर के लिए नहीं है पुरूष के शरीर के लिए स्त्री की है। वह आतुरता शरीर के लिए बिलकुल भी नहीं है। वह आतुरता किसी और ही बात के लिए है। वह आतुरता है—अहंकार शून्यता का अनुभव, समय शून्यता का अनुभव।
लेकिन समय-शून्य और अहंकार शून्य होने के लिए आतुरता क्यों है? क्योंकि जैसे ही अहंकार मिटता है, आत्मा की झलक उपलब्ध होती है। जैसे ही समय मिटता है, परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।
एक क्षण की होती है यह घटना, लेकिन उस एक क्षण के लिए मनुष्य कितनी ही ऊर्जा, कितनी ही शक्ति खोने को तैयार है। शक्ति खोने के कारण पछतावा है बाद में कि शक्ति क्षीण हुई शक्ति का अपव्यय हुआ। और उसे पता हे कि शक्ति जितनी क्षीण होती है मौत उतनी करीब आती है।
कुछ पशुओं में तो एक ही संभोग के बाद नर की मृत्यु हो जाती है। कुछ कीड़े तो एक ही संभोग कर पाते है और संभोग करते ही समाप्त हो जाते है। अफ्रीका में एक मकड़ा होता है। वह एक ही संभोग कर पाता है और संभोग की हालत में ही मर जाता है। इतनी ऊर्जा क्षीण हो जाती है।
मनुष्य को यह अनुभव में आ गया बहुत पहले कि सेक्स का अनुभव शक्ति को क्षीण करता है। जीवन ऊर्जा कम होती है। और धीरे-धीरे मौत करीब आती है। पछतावा है आदमी के प्राणों में, पछताने के बाद फिर पाता है घड़ी भर बाद कि वही आतुरता है। निश्चित ही इस आतुरता में कुछ और अर्थ है, जो समझ लेना जरूरी है।
सेक्स की आतुरता में कोई ‘रिलीजस’ अनुभव है, कोई आत्मिक अनुभव हे। उस अनुभव को अगर हम देख पाये तो हम सेक्स के ऊपर उठ सकते है। अगर उस अनुभव को हम न देख पाये तो हम सेक्स में ही जियेंगे और मर जायेंगे। उस अनुभव को अगर हम देख पाये—अँधेरी रात है और अंधेरी रात में बिजली चमकती है। बिजली की चमक अगर हमें दिखाई पड़ जाये और बिजली को हम समझ लें तो अंधेरी रात को हम मिटा भी सकते है। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि अंधेरी रात के कारण बिजली चमकती है तो फिर हम अंधेरी रात को और धना करने की कोशिश करेंगे, ताकि बिजली की चमक और गहरी हो।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि संभोग का इतना आकर्षण क्षणिक समाधि के लिए है। और संभोग से आप उस दिन मुक्त होंगे। जिस दिन आपको समाधि बिना संभोग के मिलना शुरू हो जायेगी। उसी दिन संभोग से आप मुक्त हो जायेंगे, सेक्स से मुक्त हो जायेंगे।
क्योंकि एक आदमी हजारा रूपये खोकर थोड़ा सा अनुभव पाता हो और कल हम उसे बता दें कि रूपये खोने की कोई जरूरत नहीं है, इस अनुभव की जो खदानें भरी पड़ी है। तुम चलो इस रास्ते से और उस अनुभव को पा लो। तो फिर वह हजार रूपये खोकर उस अनुभव को खरीदने बाजार में नहीं जायेगा।
सेक्स जिस अनुभूति को लाता है। अगर वह अनुभूति किन्हीं और मार्गों से उपलब्ध हो सके, तो आदमी को चित सेक्स की तरफ बढ़ना, अपने आप बंद हो जाता है। उसका चित एक नयी दिशा लेनी शुरू कर देता है।
इस लिए मैं कहता हूं कि जगत में समाधि का पहला अनुभव मनुष्य को सेक्स से ही उपलब्ध हुआ है।
धीरे-धीरे सुबह का सूरज निकला, रोशनी हुई। तब तक उसने झोले के सारे पत्थर फेंक दिये थे। सिर्फ एक पत्थर उसके हाथ में रह गया था। सूरज की रोशनी मे देखते ही जैसे उसके ह्रदय की धड़कन बंद हो गई। सांस रूक गई। उसने जिन्हें पत्थर समझा कर फेंक दिया था। वे हीरे-जवाहरात थे। लेकिन अब तो अंतिम हाथ में बचा था, और वह पूरे झोले को फेंक चूका था। और वह रोने लगा, चिल्लाने लगा। इतनी संपदा उसे मिल गयी थी कि अनंत जन्मों के लिए काफी थी, लेकिन अंधेरे में, अंजान अपरिचित, उसने उस सारी संपदा को पत्थर समझकर फेंक दिया था।
लेकिन फिर भी वह मछुआ सौभाग्यशाली था, क्योंकि अंतिम पत्थर फेंकने से पहले सूरज निकल आया था और उसे दिखाई पड़ गया था कि उसके हाथ में हीरा है। साधारणतया सभी लोग इतने भाग्यशाली नहीं होते। जिंदगी बीत जाती है, सूरज नहीं निकलता, सुबह नहीं होती, सूरज की रोशनी नहीं आती। और सारे जीवन के हीरे हम पत्थर समझकर फेंक चुके होते है।
जीवन एक बड़ी संपदा है, लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है।
जीवन क्या है, यह भी पता नहीं चल पाता और हम उसे फेंक देते है। जीवन में क्या छिपा है, कौन से राज, कौन से रहस्य, कौन सा स्वर्ग, कौन सा आनंद, कौन सी मुक्ति, उन सब का कोई भी अनुभव नहीं हो पाता और जीवन हमारे हाथ से रिक्त हो जाता है।
इन आने वाले तीन दिनों में जीवन की संपदा पर ये थोड़ी सी बातें मुझे कहानी है। लेकिन जो लोग जीवन की संपदा को पत्थर मान कर बैठे है। वे कभी आँख खोलकर देख पायेंगे कि जिन्हें उन्होंने पत्थर समझा है, वह हीरे-माणिक है, यह बहुत कठिन है। और जिन लोगो ने जीवन को पत्थर मानकर फेंकन में ही समय गंवा दिया है। अगर आज उनसे कोई कहने जाये कि जिन्हें तुम पत्थर समझकर फेंक रहे थे। वहां हीरे-मोती भी थे तो वे नाराज होंगे। क्रोध से भर जायेंगे। इसलिए नहीं कि जो बात कही गयी है वह गलत है, बल्कि इसलिए कि यह बात इस बात का स्मरण दिलाती है। कि उन्होंने बहुत सी संपदा फेंक दी।
लेकिन चाहे हमने कितनी ही संपदा फेंक दी हो, अगर एक क्षण भी जीवन का शेष है तो फिर भी हम कुछ बचा सकते है। और कुछ जान सकते है और कुछ पा सकते है। जीवन की खोज में कभी भी इतनी देर नहीं होती कि कोई आदमी निराश होने का कारण पाये।
लेकिन हमने यह मान ही लिया है—अंधेरे में, अज्ञान में कि जीवन में कुछ भी नहीं है सिवाय पत्थरों के। जो लोग ऐसा मानकर बैठ गये है, उन्होंने खोज के पहले ही हार स्वीकार कर ली है।
मैं इस हार के संबंध में, इस निराशा के संबंध के, इस मान ली गई पराजय के संबंध में सबसे पहले चेतावनी यह देना चाहता हूं के जीवन मिटटी और पत्थर नहीं है। जीवन में बहुत कुछ है। जीवन मिटटी और पत्थर के बीच बहुत कुछ छिपा है। अगर खोजने वाली आंखें हो तो जीवन से वह सीढ़ी भी निकलती है, जो परमात्मा तक पहुँचती है। इस शरीर में भी,जो देखने पर हड्डी मांस और चमड़ी से ज्यादा नहीं है। वह छिपा है, जिसका हड्डी, मांस और चमड़ी से कोई संबंध नहीं है। इस साधारण सी देह में भी जो आज जन्मती है कल मर जाती है। और मिटटी हो जाती है। उसका वास है—जो अमृत है, जो कभी जन्मता नहीं और कभी समाप्त नहीं होता है।
रूप के भीतर अरूप छिपा है और दृश्य के भीतर अदृश्य का वास है। और मृत्यु के कुहासे में अमृत की ज्योति छीपी है। मृत्यु के धुएँ में अमृत की लौ भी छिपी हुई है। वह फ्लेम वह ज्योति भी छिपी है, जिसकी की कोई मृत्यु नहीं है।
यह यात्रा कैसे हो सकती है कि धुएँ के भीतर छिपी हुई ज्योति को जान सकें, शरीर के भीतर छिपी हुई आत्मा को पहचान सकें, प्रकृति के भीतर छिपे हुए परमात्मा के दर्शन कर सकें। उस संबंध में ही तीन चरणों में मुझे बातें करनी है।
पहली बात,हमने जीवन के संबंध में ऐसे दृष्टिकोण बना लिए है, हमने जीवन के संबंध में ऐसी धारणाएं बना ली है। हमने जीवन के संबंध में ऐसा फलसफा खड़ा कर रखा है कि उस दृष्टिकोण और धारणा के कारण ही जीवन के सत्य को देखने से हम वंचित रह जाते है। हमने मान ही लिया है कि जीवन क्या है—बिना खोजें, बिना पहचाने, बिना जिज्ञासा किये, हमने जीवन के संबंध में कोई निश्चित बात ही समझ रखी है
हजारों वर्षों से हमें एक बात मंत्र की तरह पढ़ाई जाती है। जीवन आसार है, जीवन व्यर्थ हे, जीवन दु:ख है। सम्मोहन की तरह हमारे प्राणों पर यह मंत्र दोहराया गया है कि जीवन व्यर्थ है, जीवन आसार है, जीवन छोड़ने योग्य है। यह बात सुन-सुन कर धीरे-धीरे हमारे प्राणों में पत्थर की तरह मजबूत होकर बैठ गयी है। इस बात के कारण जीवन आसार दिखाई पड़ने लगा है। जीवन दुःख दिखाई पड़ने लगा है। इस बात के कारण जीवन ने सारा आनंद, सारा प्रेम,सारा सौंदर्य खो दिया है। मनुष्य एक कुरूपता बन गया है। मनुष्य एक दुःख का अड्डा बन गया है।
और जब हमने यह मान ही लिया कि जीवन व्यर्थ, आसार है, तो उसे सार्थक बनाने की सारी चेष्टा भी बंद हो गयी हो तो आश्चर्य नहीं है। अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन एक कुरूपता है ताक उसके भीतर सौंदर्य की खोज कैसे हो सकती है। और अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन सिर्फ छोड़ देने योग्य है, तो जिसे छोड़ ही देना है। उसे सजाना, उसे खोजना, उसे निखारना,इसकी कोई भी जरूरत नहीं है।
हम जीवन के साथ वैसा व्यवहार कर रहे है, जैसा कोई आदमी स्टेशन पर विश्रामालय के साथ व्यवहार करता है। वेटिंग रूम के साथ व्यवहार करता है। वह जानता है कि क्षण भर हम इस वेटिंग में ठहरे हुए है। क्षण भर बाद छोड़ देना है, इस वेटिंग रूम का प्रयोजन क्या है? क्या अर्थ है? वह वहां मूंगफली के छिलके भी डालता है। पान भी थूक देता है। गंदा भी करता है और सोचता है मुझे क्या प्रयोजन। क्षण भर बाद मुझे चले जाना है।
जीवन के संबंध में भी हम इसी तरह का व्यवहार करते है। जहां से हमें क्षण भर बाद चले जाना है। वहां सुन्दर और सत्य की खोज और निर्माण करने की जरूरत क्या है?
लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, जिंदगी जरूर हमें छोड़ कर चले जाना है; लेकिन जो असली जिंदगी है, उसे हमें कभी भी छोड़ने का कोई उपाय नहीं है। हम घर छोड़ देंगे,यह स्थान छोड़ देंगे; लेकिन जो जिंदगी का सत्य है, वह सदा हमारे साथ होगा। वह हम स्वयं है। स्थान बदल जायेंगे बदल जायेंगे, लेकिन जिंदगी…जिंदगी हमारे साथ होगी। उसके बदलने का कोई उपाय नहीं है।
और सवाल यह नहीं है कि जहां हम ठहरे थे उसे हमनें सुंदर किया था, जहां हम रुके थे वहां हमने प्रीतिकर हवा पैदा की थी। जहां हम दो क्षण को ठहरे थे वहां हमने आनंद की गीत गाया था। सवाल यह नहीं है कि वहां आनंद का गीत हमने गाया था। सवाल यह है कि जिसने आनंद का गीत गया था, उसके भीतर आनंद के और बड़ी संभावनाओं के द्वार खोल लिए। जिसने उस मकान को सुंदर बनाया था। उसने और बड़े सौंदर्य को पाने की क्षमता उपलब्ध कर ली है। जिसने दो क्षण उस वेटिंग रूम में भी प्रेम के बीताये थे, उसने और बड़े पर को पाने की पात्रता अर्जित कर ली है।
हम जो करते है उसी से हम निर्मित होते है। हमारा कृत्य अंतत: हमें निर्मित करता है। हमें बनाता है। हम जो करते है, वहीं धीरे-धीरे हमारे प्राण और हमारी आत्मा का निर्माता हो जाता है। जीवन के साथ हम क्या कर रहे है,इस पर निर्भर करेगा कि हम कैसे निर्मित हो रहे है। जीवन के साथ हमारा क्या व्यवहार है, इस पर निर्भर होगा कि हमारी आत्मा किन दिशाओं में यात्रा करेगी। किन मार्गों पर जायेगी। किन नये जगत की खोज करेगी।
जीवन के साथ हमारा व्यवहार हमें निर्मित करता है—यह अगर स्मरण हो, तो शायद जीवन को आसार, व्यर्थ माने की दृष्टि हमें भ्रांत मालूम पड़ें; तो शायद हमें जीवन को दुःख पूर्ण मानने की बात गलत मालूम पड़े, तो शायद हमें जीवन से विरोध रूख अधार्मिक मालूम पड़े।
लेकिन अब तक धर्म के नाम पर जीवन का विरोध ही सिखाया गया है। सच तो यह है कि अब तक का सारा धर्म मृत्यु वादी है, जीवन वादी नहीं, उसकी दृष्टि में मृत्यु के बाद जो है, वहीं महत्वपूर्ण है, मृत्यु के पहले जो है वह महत्वपूर्ण नहीं है। अब तक के धर्म की दृष्टि में मृत्यु की पूजा है, जीवन का सम्मान नहीं। जीवन के फूलों का आदर नहीं, मृत्यु के कुम्हला गये, जा चुके, मिट गये, फूलों की क़ब्रों की , प्रशंसा और श्रद्धा है।
अब तक का सारा धर्म चिन्तन कहता है कि मृत्यु के बाद क्या है—स्वर्ग,मोक्ष, मृत्यु के पहले क्या है। उससे आज तक के धर्म को कोई संबंध नहीं रहा है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मृत्यु के पहले जो है, अगर हम उसे ही संभालने मे असमर्थ है, तो मृत्यु के बाद जो है उसे हम संभालने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। मृत्यु के पहले जो है अगर वहीं व्यर्थ छूट जाता है, तो मृत्यु के बाद कभी भी सार्थकता की कोई गुंजाइश कोई पात्रता, हम अपने में पैदा नहीं करा सकेंगे। मृत्यु की तैयारी भी इस जीवन में जो आसपास है मौजूद है उस के द्वारा करनी है। मृत्यु के बाद भी अगर कोई लोक है, तो उस लोक में हमें उसी का दर्शन होगा। जो हमने जीवन में अनुभव किया है। और निर्मित किया है। लेकिन जीवन को भुला देने की,जीवन को विस्मरण कर देने की बात ही अब तक नहीं की गई।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जीवन के अतिरिक्त न कोई परमात्मा है, न हो सकता है।
मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि जीवन को साध लेना ही धर्म की साधना है और जीवन में ही परम सत्य को अनुभव कर लेना मोक्ष को उपल्बध कर लेने की पहली सीढ़ी है।
जो जीवन को ही चूक जाते है वह और सब भी चूक जायेगा,यह निश्चित है।
लेकिन अब तक का रूख उलटा रहा है। वह रूख कहता है, जीवन को छोड़ो। वह रूख कहता है जीवन को त्यागों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन में खोजों। वह यह नहीं कहता है कि जीवन को जीने की कला सीख़ों। वह यह भी नहीं कहता है कि जीवन को जीने पर निर्भर करता है कि जीवन कैसा मालुम पड़ता है। अगर जीवन अंधकार पूर्ण मालूम पड़ता है, तो वह जीने का गलत ढंग है। यही जीवन आनंद की वर्षा भी बन सकता है। आगर जीने का सही ढंग उपलब्ध हो जाये।
धर्म जीवन की तरफ पीठ कर लेना नहीं है, जीवन की तरफ पूरी तरह आँख खोलना है।
धर्म जीवन से भागना नहीं है, जीवन को पूरा आलिंगन में ले लेना है।
धर्म है जीवन का पूरा साक्षात्कार।
यही शायद कारण है कि आज तक के धर्म में सिर्फ बूढ़े लोग ही उत्सुक रहे है। मंदिरों में जायें, चर्चों में, गिरजा घरों में, गुरु द्वारों में—और वहां वृद्ध लोग दिखाई पड़ेंगे। वहां युवा दिखाई नहीं पड़ते, वहां बच्चे दिखाई नहीं पड़ते,क्या करण है?
एक ही कारण है। अब तक का हमारा धर्म सिर्फ बूढ़े लोगों का धर्म है। उन लोगों का धर्म है, जिनकी मौत करीब आ रही है। और अब मौत से भयभीत हो गये है, मौत के बाद की चिंता के संबंध में आतुर है, और जानना चाहते है कि मौत के बाद क्या है।
जो धर्म मौत पर आधारित है, वह धर्म पूरे जीवन को कैसे प्रभावित कर सकेगा। जो धर्म मौत का चिंतन करता है, वह पृथ्वी को धार्मिक कैसे बना सकता है।
वह नहीं बना सका। पाँच हजार वर्षों की धार्मिक शिक्षा के बाद भी पृथ्वी रोज-रोज अधार्मिक होती जा रही है। मंदिर है, मसजिदें है, चर्च है, पुजारी है, पुरोहित है, सन्यासी है, लेकिन पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है। और नहीं हो सकेगी। क्योंकि धर्म का आधार ही गलत है। धर्म कार आधार जीवन नहीं है, धर्म का आधार मृत्यु है। धर्म का आधार खिलते हुए फूल नहीं है, कब्र है। जिस धर्म का आधार मृत्यु है, वह धर्म अगर जीवन के प्राणों को स्पंदित न कर पाता हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है? जिम्मेवारी किस की है?
मैं इन तीन दिनों में जीवन के धर्म के संबंध में बात करना चाहता हूं और इसीलिए पहला सूत्र समझ लेना जरूरी है। और इस सूत्र के संबंध में आज तक छिपाने की, दबाने की, भूल जाने की चेष्टा की गयी है। लेकिन जानने और खोजने की नहीं। और उस भूलने और विस्मृत कर देने की चेष्टा के दुष्परिणाम सारे जगत में व्याप्त हो गये है।
मनुष्य के सामान्य जीवन के में केंद्रीय तत्व क्या है—परमात्मा? आत्मा? सत्य?
नहीं,मनुष्य के प्राणों में, सामान्य मनुष्य के प्राणों में,जिसने कोई खोज नहीं की, जिसने कोई यात्रा नहीं की। जिसने कोई साधना नहीं की। उसके प्राणों की गहराई में क्या है—प्रार्थना? पूजा? नहीं,बिलकुल नहीं।
अगर हम सामान्य मनुष्य के जीवन-ऊर्जा में खोज करें,उसकी जीवन शक्ति को हम खोजने जायें तो न तो वहां परमात्मा है, न वहां पूजा है, न प्रार्थना है,न ध्यान है, वहां कुछ और ही दिखाई देता है, जो दिखाई पड़ता है उसे भूलने की चेष्टा की गई है। उसे जानने और समझने की नहीं।
वहां क्या दिखाई पड़ेगा अगर हम आदमी के प्राणों को चीरे और फाड़े और वहां खोजें? आदमी को छोड़ दें, अगर आदमी से इतन जगत की भी हम खोज-बीन करें तो वहां प्राणों की गहराईयों में क्या मिलेगा? अगर हम एक पौधे की जांच-बीन करें तो क्या मिलेगा? एक पौधा क्या कर रहा है?
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एक पौधा पूरी चेष्टा कर रहा है—नये बीज उत्पन्न करने की, एक पौधा के सारे प्राण,सारा रस , नये बीज इकट्ठे करने, जन्म नें की चेष्टा कर रहा है। एक पक्षी क्या कर रहा है। एक पशु क्या कर रहा है।
अगर हम सारी प्रकृति में खोजने जायें तो हम पायेंगे, सारी प्रकृति में एक ही, एक ही क्रिया जोर से प्राणों को घेर कर चल रही है। और वह क्रिया है सतत-सृजन की क्रिया। वह क्रिया है ‘’क्रिएशन’’ की क्रिया। वह क्रिया है जीवन को पुनरुज्जीवित, नये-नये रूपों में जीवन देने की क्रिया। फूल बीज को संभाल रहे है, फल बीज को संभाल रहे है। बीज क्या करेगा? बीज फिर पौधा बनेगा। फिर फल बनेगा।
अगर हम सारे जीवन को देखें, तो जीवन जन्म ने की एक अनंत क्रिया का नाम है। जीवन एक ऊर्जा है, जो स्वयं को पैदा करने के लिए सतत संलग्न है और सतत चेष्टा शील है।
आदमी के भीतर भी वहीं है। आदमी के भीतर उस सतत सृजन की चेष्टा का नाम हमने ‘सेक्स’ दे रखा है, काम दे रखा है। इस नाम के कारण उस ऊर्जा को एक गाली मिल गयी है। एक अपमान । इस नाम के कारण एक निंदा का भाव पैदा हो गया है। मनुष्य के भीतर भी जीवन को जन्म देने की सतत चेष्टा चल रही है। हम उसे सेक्स कहते है, हम उसे काम की शक्ति कहते है।
लेकिन काम की शक्ति क्या है?
समुद्र की लहरें आकर टकरा रही है समुद्र के तट से हजारों वर्षों से। लहरें चली आती है, टकराती है, लौट जाती है। फिर आती है, टकराती है लौट जाती है। जीवन भी हजारों वर्षों से अनंत-अनंत लहरों में टकरा रहा है। जरूर जीवन कहीं उठना चाहता होगा। यह समुद्र की लहरें, जीवन की ये लहरें कहीं ऊपर पहुंचना चाहती है; लेकिन किनारों से टकराती है और नष्ट हो जाती है। फिर नयी लहरें आती है, टकराती है और नष्ट हो जाती है। यह जीवन का सागर इतने अरबों बरसों से टकरा रहा है, संघर्ष ले रहा है। रोज उठता है, गिर जाता है, क्या होगा प्रयोजन इसके पीछे? जरूर इसके पीछे कोई बृहत्तर ऊँचाइयों को छूने का आयोजन चल रहा होगा। जरूर इसके पीछे कुछ और गहराइयों को जानने का प्रयोजन चल रहा है। जरूर जीवन की सतत प्रक्रिया के पीछे कुछ और महान तर जीवन पैदा करने का प्रयास चल रहा है।
मनुष्य को जमीन पर आये बहुत दिन नहीं हुए है, कुछ लाख वर्ष हुए। उसके पहले मनुष्य नहीं था। लेकिन पशु थे। पशु को आये हुए भी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ। एक जमाना था कि पशु भी नहीं था। लेकिन पौधे थे। पौधों को भी आये बहुत समय नहीं हुआ। एक समय था जब पौधे भी नहीं थे। पहाड़ थे। नदिया थी, सागर थे। पत्थर थे। पत्थर, पहाड़ और नदियों की जो दुनिया थी वह किस बात के लिए पीड़ित थी?
वह पौधों को पैदा करना चाहती थी। पौधे धीरे-धीरे पैदा हुए। जीवन ने एक नया रूप लिया। पृथ्वी हरियाली से भर गयी। फूल खिल गये।
लेकिन पौधे भी अपने से तृप्त नहीं थे। वे सतत जीवन को जन्म देते है। उसकी भी कोई चेष्टा चल रही थी। वे पशुओं को पक्षियों को जन्म देना चाहते है। पशु, पक्षी पैदा हुए।
हजारों लाखों बरसों तक पशु, पक्षियों से भरा था यह जगत, लेकिन मनुष्य को कोई पता नहीं था। पशुओं और पक्षियों के प्राणों के भीतर निरंतर मनुष्य भी निवास कर रहा था। पैदा होने की चेष्टा कर रहा था। फिर मनुष्य पैदा हुआ।
अब मनुष्य किस लिए?
मनुष्य निरंतर नये जीवन को पैदा करने के लिए आतुर है। हम उसे सेक्स कहते है, हम उसे काम की वासना कहते है। लेकिन उस वासना का मूल अर्थ क्या है? मूल अर्थ इतना है कि मनुष्य अपने पर समाप्त नहीं होना चाहता, आगे भी जीवन को पैदा करना चाहता है। लेकिन क्यों? क्या मनुष्य के प्राणों में, मनुष्य के ऊपर किसी ‘सुपरमैन’ को, किसी महा मानव को पैदा करने की कोई चेष्टा चल रही है?
निश्चित ही चल रही है। निश्चित ही मनुष्य के प्राण इस चेष्टा में संलग्न है कि मनुष्य से श्रेष्ठतर जीवन जन्म पा सके। मनुष्य से श्रेष्ठतर प्राणी आविर्भूत हो सके। नीत्से से लेकर अरविंद तक, पतंजलि से लेकिर बर ट्रेन्ड रसल तक। सारे मनुष्य के प्राणों में एक कल्पना, एक सपने की तरह बैठी रही कि मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे हो सके। लेकिन मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे होगा?
हमने तो हजारों वर्षों से इस पैदा होने की कामना को ही निंदित कर रखा है। हमने तो सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने मैं भयभीत होते है। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपा कर रख दिया है, जैसे वह है ही नहीं। जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में ओर कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है दबाया है, क्यों?
दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाता है।
शायद आप में से किसी ने एक फ्रैंच वैज्ञानिक कुये के एक नियम के संबंध में सुना होगा। वह नियम है ’’लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट’’। कुये ने एक नियम ईजाद किया है, ‘विपरीत परिणाम का’। हम जो करना चाहते है, हम इस ढंग से कर सकते है। कि जो हम परिणाम चाहते है, उसके उल्टा परिणाम हो जाये।
एक आदमी साइकिल चलाना सीखता है। बड़ा रास्ता है। चौड़ा रास्ता है। एक छोटा सा पत्थर रास्ते के किनारे पडा हुआ है। वह साइकिल चलाने वाला घबराता है। की मैं कहीं उस पत्थर से न टकरा जाऊँ। अब इतना चौड़ा रास्ता पडा है। वह साइकिल चलने वाला अगर आँख बंध कर के भी चलाना चाहे तो भी उस पत्थर से टकराने की संभावना न के बराबर है। इसका सौ में से एक ही मौका है वह पत्थर से टकराये। इतने चौड़े रास्ते पर कहीं से भी निकल सकता है लेकिन वह देखकर घबराता है। कि कहीं पत्थर से टकरा न जाऊँ। और जैसे ही वह घबराता है, मैं पत्थर से न टकरा जाऊँ। सारा रास्ता विलीन हो जाता है। केवल पत्थर ही दिखाई दिया। अब उसकी साइकिल का चाक पत्थर की और मुड़ने लगा। वह हाथ पैर से घबराता है। उसकी सारी चेतना उस पत्थर की और देखने लगती है। और एक सम्मोहित हिप्रोटाइज आदमी कि तरह वह पत्थर की तरफ खिंच जाता है। और जा कर पत्थर से टकरा जाता है। नया साईकिल सीखने वाला उसी से टकरा जाता है जिससे बचना चाहता है। लैम्पो से टकरा जाता है, खम्बों से टकरा जाता है, पत्थर से टकरा जाता है। इतना बड़ा रास्ता था कि अगर कोई निशानेबाज ही चलाने की कोशिश करता तो उस पत्थर से टकरा सकता था। लेकिन यह सिक्खड़ आदमी कैसे उस पत्थर से टकरा गया।
कुये कहता है कि हमारी चेतना का एक नियम है: लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट, हम जिस चीज से बचना चाहते है, चेतना उसी पर केंद्रित हो जाती है। और परिणाम में हम उसी से टकरा जाते है। पाँच हजार साल से आदमी सेक्स से बचना चाह रहा है। और परिणाम इतना हुआ की गली कूचे हर जगह जहां भी आदमी जाता है वहीं सेक्स से टकरा जाता है। लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट मनुष्य की आत्मा को पकड़े हुए है।
क्या कभी आपने वह सोचा है कि आप चित को जहां से बचाना चाहते है, चित वहीं आकर्षित हो जाता है। वहीं निमंत्रित हो जात है। जिन लोगो ने मनुष्य को सेक्स के विरोध में समझाया, उन लोगों ने ही मनुष्य को कामुक बनाने का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया है।
मनुष्य की अति कामुकता गलत शिक्षाओं का परिणाम है।
और आज भी हम भयभीत होते है कि सेक्स की बात न की जाये। क्यों भयभीत होते है? भयभीत इसलिए होते है कि हमें डर है कि सेक्स के संबंध में बात करने से लोग और कामुक हो जायेंगे।
मैं आपको कहना चाहता हूं कि यह बिलकुल ही गलत भ्रम है। यह शत-प्रतिशत गलत है। पृथ्वी उसी दिन सेक्स से मुक्त होगी, जब हम सेक्स के संबंध में सामान्य, स्वास्थ बातचीत करने में समर्थ हो जायेंगे।
जब हम सेक्स को पूरी तरह से समझ सकेंगे, तो ही हम सेक्स का अतिक्रमण कर सकेंगे।
जगत में ब्रह्मचर्य का जन्म हो सकता है। मनुष्य सेक्स के ऊपर उठ सकता है। लेकिन सेक्स को समझकर, सेक्स को पूरी तरह पहचान कर, उस की ऊर्जा के पूरे अर्थ, मार्ग, व्यवस्था को जानकर, उसके मुक्त हो सकता है।
आंखे बंद कर लेने से कोई कभी मुक्त नहीं हो सकता। आंखें बंद कर लेने वाले सोचते हों कि आंखे बंद कर लेने से शत्रु समाप्त हो गया है। मरुस्थल में शुतुरमुर्ग भी ऐसा ही सोचता है। दुश्मन हमने करते है तो शुतुरमुर्ग रेत में सर छिपा कर खड़ा हो जाता है। और सोचता है कि जब दुश्मन मुझे दिखाई नहीं देता ताक मैं दुशमन को कैसे दिखाई दे नहीं सकता। लेकिन यह वर्क—शुतुरमुर्ग को हम क्षमा भी कर सकते है। आदमी को क्षमा नहीं किया जा सकता है।
सेक्स के संबंध में आदमी ने शुतुरमुर्ग का व्यवहार किया है। आज तक। वह सोचता है, आँख बंद कर लो सेक्स के प्रति तो सेक्स मिट गया। अगर आँख बंद कर लेने से चीजें मिटती तो बहुत आसान थी जिंदगी। बहुत आसान होती दुनिया। आँख बंद करने से कुछ मिटता नहीं है। बल्कि जिस चीज के संबंध में हम आँख बंद करते है। हम प्रमाण देते है कि हम उस से भयभीत है। हम डर गये है। वह हमसे ज्यादा मजबूत है। उससे हम जीत नहीं सकते है, इसलिए आँख बंद करते है। आँख बंद करना कमजोरी का लक्षण है।
और सेक्स के बाबत सारी मनुष्य जाति आँख बंद करके बैठ गयी है। न केवल आँख बंद करके बैठ गयी है, बल्कि उसने सब तरह की लड़ाई भी सेक्स से ली है। और उसके परिणाम, उसके दुष्परिणाम सारे जगत में ज्ञात है।
अगर सौ आदमी पागल होते है, तो उनमें से 98 आदमी सेक्स को दबाने की वजह से पागल होते है। अगर हजारों स्त्रियों हिस्टीरिया से परेशान है तो उसमें से सौ में से 99 स्त्रियों के पीछे हिस्टीरिया के मिरगी के बेहोशी के, सेक्स की मौजूदगी है। सेक्स का दमन मौजूद है।
अगर आदमी इतना बेचैन, अशांत इतना दुःखी और पीड़ित है तो इस पीडित होने के पीछे उसने जीवन की एक बड़ी शक्ति को बिना समझे उसकी तरफ पीठ खड़ी कर ली है। उसका कारण है। और परिणाम उलटे आते है।
अगर हम मनुष्य का साहित्य उठाकर कर देखें, अगर किसी देवलोक से कभी कोई देवता आये या चंद्रलोक से या मंगलग्रह से कभी कोई यात्री आये और हमारी किताबें पढ़े, हमारा साहित्य देखे, हमारी कविता पढ़, हमारे चित्र देखे तो बहुत हैरान हो जायेगा। वह हैरान हो जायेगा यह जानकर कि आदमी का सारा साहित्य सेक्स पर केंद्रित है? आदमी की हर कविताएं सेक्सुअल क्यों है? आदमियों की सारी कहानियां, सारे उपन्यास सेक्सुअल क्यों है। आदमी की हर किताब के उपर नंगी औरत की तस्वीर क्यों है? आदमी की हर फिल्म नंगे आदमी की फिल्म क्यों है। वह बहुत हैरान होगा। अगर कोई मंगल से आकर हमें इस हालत में देखेगा तो बहुत हैरान होगा। वह सोचगा, आदमी सेक्स के सिवाय क्या कुछ भी नहीं सोचता? और आदमी से अगर पूछेगा, बातचीत करेगा तो बहुत हैरान हो जायेगा।
आदमी बातचीत करेगा आत्मा की, परमात्मा की, स्वर्ग की, मोक्ष की, सेक्स की कभी कोई बात नहीं करेगा। और उसका सारा व्यक्तित्व चारों तरफ से सेक्स से भरा हुआ है। वह मंगलग्रह का वासी तो बहुत हैरान होगा। वह कहेगा, बात चीत कभी नहीं कि जाती जिस चीज की , उसको चारों तरफ से तृप्त करने की हजार-हजार पागल कोशिशें क्यों की जा रही है?
आदमी को हमने ‘’परवर्ट’’ किया है, विकृत किया है और अच्छे नामों के आधार पर विकृत किया है। ब्रह्मचर्य की बात हम करते है। लेकिन कभी इस बात की चेष्टा नहीं करते कि पहले मनुष्य की काम की ऊर्जा को समझा जाये, फिर उसे रूपान्तरित करने के प्रयोग भी किये जा सकते है। बिना उस ऊर्जा को समझे दमन की संयम की सारी शिक्षा, मनुष्य को पागल, विक्षिप्त और रूग्ण करेगी। इस संबंध में हमें कोई भी ध्यान नहीं है। यह मनुष्य इतना रूग्ण, इतना दीन-हीन कभी भी न था, इतना ‘पायजनस’ भी न था। इतना दुःखी भी न था।
मैं एक अस्पताल के पास से निकलता था। मैंने एक तख्ते पर अस्पताल के एक लिखी हुई सूचना पढ़ी। लिखा था तख्ती पर—‘’एक आदमी को बिच्छू ने काटा है, उसका इलाज किया गया है। वह एक दिन में ठीक होकर घर वापस चला गया। एक दूसरे आदमी को सांप ने काटा था। उसका तीन दिन में इलाज किया गया। और वह स्वास्थ हो कर घर वापिस चला गया। उस पर तीसरी सुचना थी कि एक और आदमी को पागल कुत्ते ने काट लिया था। उस का दस दिन में इलाज हो रहा है। वह काफी ठीक हो गया है और शीध्र ही उसके पूरी तरह ठीक हो जाने की उम्मीद है। और उस पर चौथी सूचना लिखी थी, कि एक आदमी को एक आदमी ने काट लिया था। उसे कई सप्ताह हो गये। वह बेहोश है, और उसके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है।
मैं बहुत हैरान हुआ। आदमी का काटा हुआ इतना जहरीला हो सकता है।
लेकिन अगर हम आदमी की तरफ देखोगें तो दिखाई पड़ेगा—आदमी के भीतर बहुत जहर इकट्ठा हो गया है। और उस जहर के इकट्ठे हो जाने का पहला सुत्र यह है कि हमने आदमी के निसर्ग को, उसकी प्रकृति को स्वीकार नहीं किया है। उसकी प्रकृति को दबाने और जबरदस्ती तोड़ने की चेष्टा की है। मनुष्य के भीतर जो शक्ति है। उस शक्ति को रूपांतरित करने का, ऊंचा ले जाने का, आकाशगामी बनाने का हमने कोई प्रयास नहीं किया। उस शक्ति के ऊपर हम जबरदस्ती कब्जा करके बैठ गये है। वह शक्ति नीचे से ज्वालामुखी की तरह उबल रही है। और धक्के दे रही है। वह आदमी को किसी भी क्षण उलटा देने की चेष्टा कर रही है। और इसलिए जरा सा मौका मिल जाता है तो आपको पता है सबसे पहली बात क्या होती है।
अगर एक हवाई जहाज गिर पड़े तो आपको सबसे पहले उस हवाई जहाज में अगर पायलट हो ओर आप उसके पास जाएं—उसकी लाश के पास तो आपको पहला प्रश्न क्या उठेगा, मन में। क्या आपको ख्याल आयेगा—यह हिन्दू है या मुसलमान? नहीं। क्या आपको ख्याल आयेगा कि यह भारतीय है या कि चीनी? नहीं। आपको पहला ख्याल आयेगा—वह आदमी है या औरत? पहला प्रश्न आपके मन में उठेगा, वह स्त्री है या पुरूष? क्या आपको ख्याल है इस बात का कि वह प्रश्न क्यों सबसे पहले ख्याल में आता है? भीतर दबा हुआ सेक्स है। उस सेक्स के दमन की वजह से बाहर स्त्रीयां और पुरूष अतिशय उभर कर दिखायी पड़ती है।
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क्या आपने कभी सोचा है? आप किसी आदमी का नाम भूल सकते है, जाति भूल सकते है। चेहरा भूल सकते है? अगर मैं आप से मिलूं या मुझे आप मिलें तो मैं सब भूल सकता हूं—कि आपका नाम क्या था,आपका चेहरा क्या था, आपकी जाति क्या थी, उम्र क्या थी आप किस पद पर थे—सब भूल सकते है। लेकिन कभी आपको ख्याल आया कि आप यह भूल सके है कि जिस से आप मिले थे वह आदमी था या औरत? कभी आप भूल सकते है इस बात को कि जिससे आप मिले थे, वह पुरूष है या स्त्री? नहीं यह बात आप कभी नहीं भूल सके होगें। क्या लेकिन? जब सारी बातें भूल जाती है तो यह क्यों नहीं भूलता?
हमारे भीतर मन में कहीं सेक्स बहुत अतिशय हो बैठा है। वह चौबीस घंटे उबल रहा है। इसलिए सब बातें भूल जाती है। लेकिन यह बात नहीं भूलती है। हम सतत सचेष्ट है।
यह पृथ्वी तब तक स्वस्थ नहीं हो सकेगी, जब तक आदमी और स्त्रियों के बीच यह दीवार और यह फासला खड़ा हुआ है। यह पृथ्वी तब तक कभी भी शांत नहीं हो सकेगी,जब तक भीतर उबलती हुई आग है और उसके ऊपर हम जबरदस्ती बैठे हुए है। उस आग को रोज दबाना पड़ता है। उस आग को प्रतिक्षण दबाये रखना पड़ता है। वह आग हमको भी जला डालती है। सारा जीवन राख कर देती है। लेकिन फिर भी हम विचार करने को राज़ी नहीं होते। यह आग क्या थी?
और मैं आपसे कहता हूं अगर हम इस आग को समझ लें, तो यह आग दुश्मन नहीं दोस्त है। अगर हम इस आग को समझ लें तो यह हमें जलायेगी नहीं, हमारे घर को गर्म भी कर सकती है। सर्दियों में,और हमारी रोटियाँ भी सेक सकती है। और हमारी जिंदगी में सहयोगी और मित्र भी हो सकती है।
लाखों साल तक आकाश में बिजली चमकती थी। कभी किसी के ऊपर गिरती थी और जान ले लेती थी। कभी किसी ने सोचा भी नथा कि एक दिन घर के पंखा चलायेगी यह बिजली। कभी यह रोशनी करेगी अंधेरे में, यह किसी ने नहीं सोचा था। आज—आज वही बिजली हमारी साथी हो गयी है। क्यों?
बिजली की तरफ हम आँख मूंदकर खड़े हो जाते तो हम कभी बिजली के राज को न समझ पाते और न कभी उसका उपयोग कर पाते। वह हमारी दुश्मन ही बनी रहती। लेकिन नहीं, आदमी ने बिजली के प्रति दोस्ताना भाव बरता। उसने बिजली को समझने की कोशिश की, उसने प्रयास किया जानने के और धीरे-धीरे बिजली उसकी साथी हो गयी। आज बिना बिजली के क्षण भर जमीन पर रहना मुश्किल हो जाये।
मनुष्य के भीतर बिजली से भी अधिक ताकत है सेक्स की।
मनुष्य के भीतर अणु की शक्ति से भी बड़ी शक्ति है सेक्स की।
कभी आपने सोचा लेकिन, यह शक्ति क्या है और कैसे इसे रूपान्तरित करें? एक छोटे-से अणु में इतनी शक्ति है कि हिरोशिमा का पूरा का नगर जिस में एक लाख आदमी भस्म हो गये। लेकिन क्या आपने सोचा कि मनुष्य के काम की ऊर्जा का एक अणु एक नये व्यक्ति को जन्म देता है। उस व्यक्ति में गांधी पैदा हो सकता है, उस व्यक्ति में महावीर पैदा हो सकता है। उस व्यक्ति में बुद्ध पैदा हो सकता है, क्राइस्ट पैदा हो सकता है, उससे आइन्सटीन पैदा हो सकता है। और न्यूटन पैदा हो सकता है। एक छोटा सा अणु एक मनुष्य की काम ऊर्जा का, एक गांधी को छिपाये हुए है। गांधी जैसा विराट व्यक्ति पैदा हो सकता है।
लेकिन हम सेक्स को समझने को राज़ी नहीं है। लेकिन हम सेक्स की ऊर्जा के संबंध में बात करने की हिम्मत जुटाने को राज़ी नहीं है। कौन सा भय हमें पकड़े हुए है कि जिससे सारे जीवन का जन्म होता है। उस शक्ति को हम समझना नहीं चाहते?कौन सा डर है कौन सी घबराहट है?
मैंने पिछली बम्बई की सभा में इस संबंध में कुछ बातें कहीं थी। तो बड़ी घबराहट फैल गई। मुझे बहुत से पत्र पहुंचे कि आप इस तरह की बातें मत करें। इस तरह की बात ही मत करें। मैं बहुत हैरान हुआ कि इस तरह की बात क्यों न की जाये? अगर शक्ति है हमारे भीतर तो उसे जाना क्यों न जाये? क्यों ने पहचाना जाये? और बिना जाने पहचाने, बिना उसके नियम समझे,हम उस शक्ति को और ऊपर कैसे ले जा सकते है? पहचान से हम उसको जीत भी सकते है, बदल भी सकते है, लेकिन बिना पहचाने तो हम उसके हाथ में ही मरेंगे और सड़ेंगे, और कभी उससे मुक्त नहीं हो सकते।
जो लोग सेक्स क संबंध में बात करने की मनाही करते है, वे ही लोग पृथ्वी को सेक्स के गड्ढे में डाले हुए है। यह मैं आपसे कहना चाहता हूं, जो लोग घबराते है और जो समझते है कि धर्म का सेक्स से कोई संबंध नहीं, वह खुद तो पागल है ही, वे सारी पृथ्वी को पागल बनाने में सहयोग कर रहे है।
धर्म का संबंध मनुष्य की ऊर्जा के ‘’ट्रांसफॉर्मेशन’’ से है। धर्म का संबंध मनुष्य की शक्ति को रूपांतरित करने से है।
धर्म चाहता है कि मनुष्य के व्यक्तित्व में जो छिपा है, वह श्रेष्ठतम रूप से अभिव्यक्त हो जाये। धर्म चाहता है कि मनुष्य का जीवन निम्न से उच्च की एक यात्रा बने। पदार्थ से परमात्मा तक पहुंच जाये।
लेकिन यह चाह तभी पूरी हो सकती है…..हम जहां जाना चाहते है, उस स्थान को समझना उतना उपयोगी नहीं है। जितना उस स्थान को समझना उपयोगी है। क्योंकि यह यात्रा कहां से शुरू करनी है।
सेक्स है फैक्ट, सेक्स जो है वह तथ्य है मनुष्य के जीवन का। और परमात्मा अभी दूर है। सेक्स हमारे जीवन का तथ्य हे। इस तथ्य को समझ कर हम परमात्मा की यात्रा चल सकते है। लेकिन इसे बिना समझे एक इंच आगे नहीं जा सकते। कोल्हू के बेल कि तरह इसी के आप पास घूमते रहेंगे।
मैंने पिछली सभा में कहा था, कि मुझे ऐसा लगता है। हम जीवन की वास्तविकता को समझने की भी तैयारी नहीं दिखाते। तो फिर हम और क्या कर सकते है। और आगे क्या हो सकता है। फिर ईश्वर की परमात्मा की सारी बातें सान्त्वना ही, कोरी सान्त्वना की बातें है और झूठ है। क्योंकि जीवन के परम सत्य चाहे कितने ही नग्न क्यों न हो, उन्हें जानना ही पड़ेगा। समझना ही पड़ेगा।
तो पहली बात तो यह जान लेना जरूरी है कि मनुष्य का जन्म सेक्स में होता है। मनुष्य का सारा जीवन व्यक्तित्व सेक्स के अणुओं से बना हुआ है। मनुष्य का सारा प्राण सेक्स की उर्जा से भरा हुआ है। जीवन की उर्जा अर्थात काम की उर्जा। यह तो काम की ऊर्जा है, यह जा सेक्स की ऊर्जा है, यह क्या है? यह क्यों हमारे जीवन को इतने जोर से आंदोलित करती है? क्यों हमारे जीवन को इतना प्रभावित करती है? क्यों हम धूम-धूम कर सेक्स के आस-पास, उसके ईद-गिर्द ही चक्कर लगाते है। और समाप्त हो जाते है। कौन सा आकर्षण है इसका?
हजारों साल से ऋषि,मुनि इंकार कर रहे है, लेकिन आदमी प्रभावित नहीं हुआ मालूम पड़ता। हजारों साल से वे कह रहे है कि मुख मोड़ लो इससे। दूर हट जाओ इससे। सेक्स की कल्पना और काम वासना छोड़ दो। चित से निकाल डालों ये सारे सपने।
लेकिन आदमी के चित से यह सपने निकले ही नहीं। कभी निकल भी नहीं सकते है इस भांति। बल्कि मैं तो इतना हैरान हुआ हूं—इतना हैरान हुआ हूं। वेश्याओं से भी मिला हुं, लेकिन वेश्याओं ने मुझसे सेक्स की बात नहीं की। उन्होंने आत्म, परमात्मा के संबंध में पूछताछ की। और मैं साधु संन्यासियों से भी मिला हूं। वे जब भी अकेले में मिलते है तो सिवाये सेक्स के और किसी बात के संबंध में पूछताछ नहीं करते। मैं बहुत हैरान हुआ। मैं हैरान हुआ हूं इस बात को जानकर कि साधु-संन्यासियों को जो निरंतर इसके विरोध में बोल रहे है, वे खुद ही चितके तल पर वहीं ग्रसित है। वहीं परेशान है। तो जनता से आत्मा परमात्मा की बातें करते है, लेकिन भीतर उनके भी समस्या वही है।
होगी भी। स्वाभाविक है, क्योंकि हमने उस समस्या को समझने की भी चेष्टा नहीं की है। हमने उस ऊर्जा के नियम भी जानने नहीं चाहे है। हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि मनुष्य का इतना आकर्षण क्यों है। कौन सिखाता है, सेक्स आपको।
सारी दूनिया तो सीखने के विरोध में सारे उपाय करती है। मॉं-बाप चेष्टा करते है कि बच्चे को पता न चल जाये। शिक्षक चेष्टा करता है। धर्म शास्त्र चेष्टा करते है कहीं स्कूल नहीं, कहीं कोई युनिवर्सिटी नहीं। लेकिन आदमी अचानक एक दिन पाता है कि सारे प्राण काम की आतुरता से भर गये है। यह कैसे हो जाता है। बिना सिखाये ये क्या होता है।
सत्य की शिक्षा दी जाती है। प्रेम की शिक्षा दी जाती है। उसका तो कोई पता नहीं चलता। सेक्स का आकर्षण इतना प्रबल है, इतना नैसर्गिक केंद्र क्या है, जरूर इसमें कोई रहस्य है और इसे समझना जरूरी है। तो शायद हम इससे मुक्त भी हो सकते है।
पहली बात तो यह है कि मनुष्य के प्राणों में जो सेक्स का आकर्षण है। वह वस्तुत: सेक्स का आकर्षण नहीं है। मनुष्य के प्राणों में जो काम वासना है, वह वस्तुत: काम की वासना नहीं है, इसलिए हर आदमी काम के कृत्य के बाद पछताता है। दुःखी होता है पीडित होता है। सोचता है कि इससे मुक्त हो जाऊँ। यह क्या है?
लेकिन आकर्षण शायद कोई दूसरा है। और वह आकर्षण बहुत रिलीजस, बहुत धार्मिक अर्थ रखता है। वह आकर्षण यह है…..कि मनुष्य के सामान्य जीवन में सिवाय सेक्स की अनुभूति के वह कभी भी अपने गहरे से गहरे प्राणों में नहीं उतर पाता है। और किसी क्षण में कभी गहरे नहीं उतरता है। दुकान करता है, धंधा करता है। यश कमाता है, पैसा कमाता है, लेकिन एक अनुभव काम का, संभोग का, उसे गहरे ले जाता है। और उसकी गहराई में दो घटनायें घटती है, एक संभोग के अनुभव में अहंकार विसर्जित हो जाता है। ‘’इगोलेसनेस’’ पैदा हो जाती है। एक क्षण के लिए अहंकार नहीं रह जाता, एक क्षण को यह याद भी नहीं रह जाता कि मैं हूं।
क्या आपको पता है, धर्म में श्रेष्ठतम अनुभव में ‘मैं’ बिलकुल मिट जाता है। अहंकार बिलकुल शून्य हो जाता है। सेक्स के अनुभव में क्षण भर को अहंकार मिटता है। लगता है कि हूं या नहीं। एक क्षण को विलीन हो जाता है मेरा पन का भाव।
दूसरी घटना घटती है। एक क्षण के लिए समय मट जाता है ‘’टाइमलेसनेस’’ पैदा हो जाती है। जीसस ने कहा है समाधि के संबंध में: ‘’देयर शैल बी टाईम नौ लांगर’’। समाधि का जो अनुभव है वहां समय नहीं रह जाता है। वह कालातीत है। समय बिलकुल विलीन हो जाता है। न कोई अतीत है, न कोई भविष्य—शुद्ध वर्तमान रह जाता है।
सेक्स के अनुभव में यह दूसरी घटना घटती है। न कोई अतीत रह जाता है , न कोई भविष्य। मिट जाता है, एक क्षण के लिए समय विलीन हो जाता है।
यह धर्म अनुभूति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है—इगोलेसनेस, टाइमलेसनेस।
दो तत्व है, जिसकी वजह से आदमी सेक्स की तरफ आतुर होता है और पागल होता है। वह आतुरता स्त्री के शरीर के लिए नहीं है पुरूष के शरीर के लिए स्त्री की है। वह आतुरता शरीर के लिए बिलकुल भी नहीं है। वह आतुरता किसी और ही बात के लिए है। वह आतुरता है—अहंकार शून्यता का अनुभव, समय शून्यता का अनुभव।
लेकिन समय-शून्य और अहंकार शून्य होने के लिए आतुरता क्यों है? क्योंकि जैसे ही अहंकार मिटता है, आत्मा की झलक उपलब्ध होती है। जैसे ही समय मिटता है, परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।
एक क्षण की होती है यह घटना, लेकिन उस एक क्षण के लिए मनुष्य कितनी ही ऊर्जा, कितनी ही शक्ति खोने को तैयार है। शक्ति खोने के कारण पछतावा है बाद में कि शक्ति क्षीण हुई शक्ति का अपव्यय हुआ। और उसे पता हे कि शक्ति जितनी क्षीण होती है मौत उतनी करीब आती है।
कुछ पशुओं में तो एक ही संभोग के बाद नर की मृत्यु हो जाती है। कुछ कीड़े तो एक ही संभोग कर पाते है और संभोग करते ही समाप्त हो जाते है। अफ्रीका में एक मकड़ा होता है। वह एक ही संभोग कर पाता है और संभोग की हालत में ही मर जाता है। इतनी ऊर्जा क्षीण हो जाती है।
मनुष्य को यह अनुभव में आ गया बहुत पहले कि सेक्स का अनुभव शक्ति को क्षीण करता है। जीवन ऊर्जा कम होती है। और धीरे-धीरे मौत करीब आती है। पछतावा है आदमी के प्राणों में, पछताने के बाद फिर पाता है घड़ी भर बाद कि वही आतुरता है। निश्चित ही इस आतुरता में कुछ और अर्थ है, जो समझ लेना जरूरी है।
सेक्स की आतुरता में कोई ‘रिलीजस’ अनुभव है, कोई आत्मिक अनुभव हे। उस अनुभव को अगर हम देख पाये तो हम सेक्स के ऊपर उठ सकते है। अगर उस अनुभव को हम न देख पाये तो हम सेक्स में ही जियेंगे और मर जायेंगे। उस अनुभव को अगर हम देख पाये—अँधेरी रात है और अंधेरी रात में बिजली चमकती है। बिजली की चमक अगर हमें दिखाई पड़ जाये और बिजली को हम समझ लें तो अंधेरी रात को हम मिटा भी सकते है। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि अंधेरी रात के कारण बिजली चमकती है तो फिर हम अंधेरी रात को और धना करने की कोशिश करेंगे, ताकि बिजली की चमक और गहरी हो।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि संभोग का इतना आकर्षण क्षणिक समाधि के लिए है। और संभोग से आप उस दिन मुक्त होंगे। जिस दिन आपको समाधि बिना संभोग के मिलना शुरू हो जायेगी। उसी दिन संभोग से आप मुक्त हो जायेंगे, सेक्स से मुक्त हो जायेंगे।
क्योंकि एक आदमी हजारा रूपये खोकर थोड़ा सा अनुभव पाता हो और कल हम उसे बता दें कि रूपये खोने की कोई जरूरत नहीं है, इस अनुभव की जो खदानें भरी पड़ी है। तुम चलो इस रास्ते से और उस अनुभव को पा लो। तो फिर वह हजार रूपये खोकर उस अनुभव को खरीदने बाजार में नहीं जायेगा।
सेक्स जिस अनुभूति को लाता है। अगर वह अनुभूति किन्हीं और मार्गों से उपलब्ध हो सके, तो आदमी को चित सेक्स की तरफ बढ़ना, अपने आप बंद हो जाता है। उसका चित एक नयी दिशा लेनी शुरू कर देता है।
इस लिए मैं कहता हूं कि जगत में समाधि का पहला अनुभव मनुष्य को सेक्स से ही उपलब्ध हुआ है।