Saturday 3 December 2011

इमाम अहमद रज़ा द्वारा कीया हुआ कुरान का अनुवाद ओर अनुवाद से आतंकवाद का संबंध

http://islamisanskar.jagranjunction.com/2011/05/29/%E0%A4%87%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AE-%E0%A4%85%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%A6-%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%AF/


उत्तर प्रदेश के बरेली शहर के एक इज्ज़त वाले पठान खानदान में एक ऐसी हस्ती ने जन्म लिया जो अल्लाह तआला के दिए हुए इल्म और फ़ज़ल से इस्लामी जगत के क्षतीज पर चमकता सूरज बनकर छागया. ये थे अब्दुल मुस्तफा अहमद रज़ा खाँ जिन्हें दुनिया के मुसलामानों की अक्सरियत बीसवीं सदी के मुजद्दिद की हैसियत से अपना इमाम मानती है.
यूं तो इमाम अहमद रज़ा के इल्मी कारनामों की सूची काफी लम्बी है- दस हज़ार पन्नों पर आधारित अहम फतवों का संग्रह, एक हज़ार से ऊपर रिसाले ओर किताबें, इश्के रसूल में डूबी हुई शायरी-इत्यादि. लेकिन इनमें सबसे बड़ा इल्मी कारनामा है कुरान शरीफ का उर्दू अनुवाद. यह अनुवाद नहीं बल्कि अल्लाह तआला के कलाम की उर्दू में व्याख्या है.
मुफस्सिरीन का क़ौल है कि कुरान का ठीक ठीक अनुवाद किसी भी भाषा, यहाँ तक कि अरबी में भी नहीं किया जा सकता. एक भाषा से दूसरी भाषा में केवल शब्दों को बदल देना मुश्किल नहीं है. लेकिन किसी भाषा की फ़साहत, बलाग़त, सादगी और उसके अन्दर छुपे अर्थ, उसके मुहावरों ओर दूसरे रहस्यों को समझाना, ओर उसकी पृष्ठभूमि का अध्ययन करके उसकी सही सही व्याख्या करना अत्यन्त कठिन काम है. यही आज तक कोई न कर सका. रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलयहे वसल्लम, जिन पर कुरान उतरा, जिसने अल्लाह के कलाम की तशरीह की ओर वह यही तशरीह थी जो सहाबए किराम, ताबईन, तबए-ताबईन ओर उलमा व मुफ़स्सिरों ओर मुहद्दिसों से होती हुई हम तक पहुंची.
कुरान के दूसरी भाषाओं में जो अनुवाद हुए हैं उसके अध्ययन से यह बात साफ़ होजाती है कि किसी शब्द अनुवाद उसके मशहूर ओर प्रचलित अर्थ के अनुसार कर दिया गया है, जब कि हर भाषा में किसी भी शब्द के कई अर्थ होते हैं. इन मुख्तलिफ अर्थों में किसी एक अर्थ का चुनाव अनुवाद करने वाले की ज़िम्मेदारी होती है. वरना शब्द का ज़ाहिरी अनुवाद तो एक नौसीखिया भी कर सकता है.
इमाम अहमद रज़ा ने कुरान शरीफ का जो अनुवाद किया है उसे देखने के बाद जब हम दुनिया भर के कुरान अनुवादों पर नज़र डालते हैं तो यह वास्तविकता सामने आती है कि अक्सर अनुवादकों कि नज़र कुरान के शब्दों की गहराई तक नहीं पहुंच सकी है ओर उनके अनुवाद से कुरान शरीफ का मफहूम ही बदल गया है. बल्कि कुछ अनुवादकों से तो जाने अनजाने अर्थात क़तर-व्योत भी हो गयी है. यह शब्द के ऊपर शब्द रखने के कारण कुरान की हुरमत ओर नबियों के सम्मान को भी ठेस पहुंची है. ओर इससे भी बढ़कर, अल्लाह तआला ने जिन चीज़ों को हलाल ठहराया है, इन अनुवादों के कारण वह हराम क़रार पा गई है. ओर इन्हीं अनुवादों से यह भी मालूम होता है कि मआज़ल्लाह कुछ कामों कि जानकारी अल्लाह तआला को भी नहीं होती. इस क़िस्म का अनुवाद करके वो खुद भी गुमराह हुए ओर मुसलामानों के लिए गुमराही का रास्ता खोल दिया ओर यहूदियों, इसाईयों ओर हिन्दुओं के हाथों में (इस तरह का अनुवाद करके) इस्लाम विरोधी हथियार दे दिया गया. आर्य-समाजियों का काफी लिटरेचर इस्लाम पर केए गए तीखे तन्ज़ ओर कटाक्ष से भरा पड़ा है.
इमाम अहमद रज़ा ने मशहूर ओर मुस्तनद तफसीरों कि रौशनी में कुरान शरीफ का अनुवाद किया. जिस कि व्याख्या मुफ़स्सिरों ने कई कई पन्नों में की, आला हज़रत ने अल्लाह तआला के प्रदान किये हुए ज्ञान से वही व्याख्या अनुवाद के एक वाक्य या एक शब्द में अदा कर दी. यही वजह है की आला हज़रत के अनुवाद से हर पढने वाले की निगाह में कुरान शरीफ का आदर, नबियों का सम्मान ओर इन्सानियत का वक़ार बुलंद होता है.
आइये देखें कि आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा ओर दूसरे लोगों के कुरान-अनुवाद के बीच क्या अंतर है.
पारा तीस, सूरए वद-दुहा, आयत न.७
व व-ज-द-क दाल्लन फ-ह-दा
अनुवाद:
-मक़बूल शीआ: “ओर तुमको भटका हुआ पाया ओर मंज़िले मक़सूद तक पहुंचाया.”
-शाह अब्दुल क़ादिर: “ओर पाया तुमको भटकता फिर राह दी.”
-शाह रफीउद्दीन: “ओर पाया तुमको राह भूला हुआ पस राह दिखाई.”
-शाह वलीउल्लाह: “व याफ्त तुरा राह गुम कर्दा यानी शरीअत नमी दानिस्ती पर राह नमूद.”
-अब्दुल माजिद दरियाबादी देवबंदी: “ओर आप को बेख़बर पाया सो रास्ता बताया.”
-देवबंदी डिप्टी नज़ीर अहमद: “ओर तुमको देखा कि राहे हक़ कि तलाश में भटके भटके फिर रहे हो तो तुमको दीने इस्लाम का सीधा रास्ता दिखा दिया.”
-अशरफ अली थानवी देवबंद: “ओर अल्लाह तआला ने आपको(शरीअत से) बेख़बर पाया सो आपको (शरीअत का) रास्ता बतला दिया.”
-आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा: “ओर तुम्हें अपनी मुहब्बत में खुदरफ्ता पाया तो अपनी तरफ राह दी.”
ऊपर की आयत में “दाल्लन” शब्द का इस्तेमाल हुआ है. इसके मशहूर मानी(अर्थ) गुमराही ओर भटकना है. चुनान्चे अनुवादकों ने आँख बंद करके यही अर्थ लगा दिए, यह न देखा कि अनुवाद में किसे राह-गुमकर्दा, भटकता, बेख़बर, राह भूला कहा जा रहा है. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलयहे वसल्लम का आदर सम्मान बाक़ी रहता है या नहीं, इसकी कोई चिन्ता नहीं. एक तरफ तो है “मा वद्दअक रब्बुका वमा क़ला, वलल आखिरातो खैरुल लका मिनल ऊला” (यानी तुम्हें तुम्हारे रब ने न छोड़ा ओर न मकरूह जाना ओर बेशक पिछली तुम्हारे लिए पहली(घडी) से बेहतर है…..) इसके बाद ही शान वाले रसूल की गुमराही का वर्णन कैसे आ गया. आप खुद गौर करें, हुज़ूर सल्लल्लाहो अलयहे वसल्लम अगर किसी लम्हा गुमराह होते तो राह पर कौन होता था. यूँ कहिये की जो खुद गुमराह हो, भटकता फिरा हो, राह भूला हो, वह हिदायत देने वाला कैसे हो सकता है?
खुद कुरान शरीफ में साफ़ तौर से कहा गया है “मा दल्ला साहिबुकुम वमा ग़वा” (आपके साहिब अर्थात नबी करीम सल्लल्लाहो अलयहे वसल्लम न गुमराह हुए ओर न बेराह चले – पारा सत्ताईस, सूरए नज्म, आयत दो) जब एक स्थान पर अल्लाह तआला गुमराह ओर बेराह की नफी(नकारना) फरमा रहा है तो दूसरे स्थान पर खुद ही कैसे गुमराह इरशाद फरमाएगा? कुरान में विरोधी विचार को स्थान ही नहीं.

कुरान शरीफ का ग़लत अनुवाद इस्लाम के विरोधीयों का हथियार

ये तो एक उदहारण है बाकी तो बेशुमार भूलें अन्य अनुवादकों ने की है किसी ने अन्जाने में तो किसी ने जान बूझकर (विरोधियों से माल वसूल करके) भी की है. ताकि लोगों को इस्लाम का विरोधी बनाया जा सके ओर इस्लाम को ग़लत पेश किया जा सके.
आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए ये ग़लत अनुवाद वाले नुस्खों की भूमिका महत्व की है. दुनिया के आतंकवादी गुस्ताक़े(निंदक) रसूल हैं. ये लोग मुहम्मद सल्लल्लाहो अलयहे वसल्लम को सिर्फ एक एलची की तरह मानते हैं. इसलिए कुरान का जो अर्थ पैगम्बर मुहम्मद सल्लल्लाहो अलयहे वसल्लम ने लिया है वह नहीं लेते यह इनकी मन-मानी करते है ओर अपने मतलब का अर्थ निकालते हैं
कुरान शरीफ का अनुवाद बिना हदीस के करना आतंकवादियों की बहुत बड़ी गुमराही है. एक उदाहरण देखें के कुरान शरीफ में जिहाद के सन्दर्भ में एक आयत आइ कि “तुम दीन के लिए लड़ो” इसका मतलब क्या यह हुआ है कि मुसलमान गैर-मुस्लिमों को मारना शुरू कर दे. कुरान की आयत बिना वजह नहीं उतरती थी कि कोई न कोई उसका कारण होता था.
जिहाद वाली आयातों का अर्थ क्या आज कल के आतंकवादियों को ही समझ में आया? २० या ३० वर्ष से पहले के मुसलामानों को क्या इन जिहाद वाली आयातों का अर्थ पता नहीं था? इन मुद्दों पर ग़ौर करना बहुत ज़रूरी है.
अगर हम इन मुद्दों पर ग़ौर करेंगे तो खुद कहेंगे कि इस्लाम या कुरान आतंकवाद नहीं सिखाता बल्कि अमन का पैग़म देता है.


No comments:

Post a Comment